हस्पताल की चिमनी के बाहर एक ठेला गाड़ी में मैं पड़ा था।  सफ़ेद कपड़े में लिपटे थे मेरे शरीर के टुकड़े, छोटे बड़े टुकड़े।  उनपर विद्यार्थीओ के द्वारा किए हुए प्रयोगों के निशान थे।  मेरे अंग प्रतीक्षा कर रहे थे चिमनी में झोकें जाने की और मैं प्रतीक्षा कर रहा था कब ये अंग उस चिमनी में स्वः हो और मैं इस बंधन से सम्पूर्ण मुक्त हो कर अपनी अनंत यात्रा को पूरा करू। पिछले सात दिनों से मैं इस हस्पताल में भटक रहा था।  मेट्रो  में अचानक तबियत ख़राब हो जाने पर मुझे हस्पताल में लाया गया।  मुझे होश था और मैंने अपने फॉर्म पर खुद ही लिख दिया कि अगर मेरी मृत्यु हो गयी तो मुझे विद्यार्थिओं के अनुसन्धान के लिए व्यवहार किया जाये।  उसके तुरंत बाद मैंने देखा की मैं अपने शरीर को देख रहा था। अपना पता मैंने गलत लिखा था।  पुलिसवालों और हस्पताल वालो ने मेरे कुछ फोटो लिए, उनके फाइलों की खानापूर्ति करनी  थी,गुमशुदा रिपोर्टो से मिलाना था, और न जाने क्या क्या , लेकिन मुझे क्या मतलब।  मैं तो अब आज़ाद था, सारी घृणाओं से, जो आज भी सुबह सुबह मुझे मिली।
आज उस बारे में सोचने की कोई ज़रूरत नहीं थी।  मैं आज़ाद था।  लेकिन जब मैंने अपने आप को सबसे बांधने की कोशिश करी, सबको खुश करने की कोशिश करी , तब सबने समझा कि वो रानी विक्टोरिया  है और मैं उनका गुलाम।  उनको खुश रखना मेरी मज़बूरी, या फिर मेरा कर्त्तव्य है।  उनका कर्त्तव्य कुछ नहीं।
आज मैं आज़ाद हूँ।
मैं एक विभ्रांति में जीता रहा कि दूसरो की ख़ुशी में सुख मिलता है। बचपन की सीखी हुई बाते बुढ़ापे तक आते आते सब झूठी हो गयी थी। यहाँ तो ज़्यादातर रिश्ते सिर्फ बाजार की ख़रीदारी की तरह लेनेदेने की रस्साखींचीं में सीमित हो चुकी थी। किसको हमने क्या दिया, उसका कोई मतलब नहीं था। मतलब सिर्फ इस बात का था कि किसी और को क्यों ? जो पहले मिला था वो अब क्यों नहीं, और भी न जाने कितने आरोप।
अब मैं आज़ाद हूँ। आज मेरा शरीर सफदरजंग हस्पताल की चिमनी में समर्पित हो गया। अलविदा।
आज मैं आज़ाद हूँ।
मैं एक विभ्रांति में जीता रहा कि दूसरो की ख़ुशी में सुख मिलता है। बचपन की सीखी हुई बाते बुढ़ापे तक आते आते सब झूठी हो गयी थी। यहाँ तो ज़्यादातर रिश्ते सिर्फ बाजार की ख़रीदारी की तरह लेनेदेने की रस्साखींचीं में सीमित हो चुकी थी। किसको हमने क्या दिया, उसका कोई मतलब नहीं था। मतलब सिर्फ इस बात का था कि किसी और को क्यों ? जो पहले मिला था वो अब क्यों नहीं, और भी न जाने कितने आरोप।
अब मैं आज़ाद हूँ। आज मेरा शरीर सफदरजंग हस्पताल की चिमनी में समर्पित हो गया। अलविदा।

 
 
 
 
इतना अवसाद क्यों भाई। आज़ाद तो आत्मा को होना ही है, समय आने पर।
ReplyDeleteअवसाद के क्षणों में निकले शब्द, अंतरात्मा की आवाज लगती है लेकिन इतना अवसाद ठीक नहीं सेहत के लिए।
ReplyDelete