द्वापर युग का आखरी मानव
(मेरी कहानी की अवधारणा है की यदुवंश के सर्वनाश के पश्चात् श्री कृष्ण के स्वर्गारोहण के तुरंत बाद ही द्वापर युग की समाप्ति और कलियुग का प्रारम्भ हुआ। अगर किसी को इस अवधारणा पर कोई शक हो तो किसी शास्त्रार्थ की आवश्यकता नहीं।)
बड़े भाई वल्लभ ने जल समाधि ले ली। हमारा पूरा वंश पिछले कुछ दिनों की सामाजिक पारस्परिक युद्ध में समाप्त हो गया। केवल व्यक्तिगत परिवार ही नहीं, पूरा राज्य मनुष्य विहीन हो गया।
पूरा जीवन मैंने अस्त्र शस्त्र के साथ और उनके सुधार और प्रयोग में बिताया। महाभारत के युद्ध में दाऊ तो उपस्थित ही नहीं रहे, परन्तु मैंने शस्त्रों का जो प्रयोग देखा वो इस पृथ्वी पर इससे पहले ना कभी हुआ और कदाचित हजारों वर्ष और लग जाएं ऐसा शस्त्र भं डार बनाने और ऐसे योद्धा बनाने में। मैंने तो प्रतिज्ञा की थी कि शस्त्र नहीं उठाऊंगा और केवल एक बार सुदर्शन चक्र हाथ में लिया था, प्रयोग तो नहीं किया। मैं जानता हूं मैं ईश्वर का प्रतिरूप हूं, किन्तु मानव रूप में जन्म, मानव शरीर और मन का कर्तव्य पूरा करता आया हूं।
आज, मेरा मानव मन अवसाद ग्रस्त है। अपना परिवार, अपने हाथों से बसाया हुआ राज्य, पूरा समाप्त हो गया। गांधारी के श्राप को चरितार्थ करते हुए सबने एक दूसरे को मृत्यु दे दिया। मैंने स्वयं ही नहीं सोचा था कि मनुष्य जाति इस प्रकार केवल कुश का प्रयोग करते हुए एक सम्पूर्ण जाति को ही समाप्त कर सकती है। मैं ईश्वर का प्रतिरूप कदाचित हूं, पर विधाता नहीं हूं।
और अंत में, सागर मध्य में निर्मित राज्य को सागर ने अपने वक्ष में समेट लिया।
और मैं इस गहन वन में प्रकृति के सानिध्य के एकांत में प्रतीक्षा कर रहा हूं उस व्याध की जिसकी प्रजाति को मैंने और अर्जुन ने विस्थापित किया था, खांडवप्रस्थ से। मनुष्य शरीर का लेने देने का सांख्य कर्तव्य और अधिकार उसकी तुला पर असमान नहीं रहेगा। व्याध के द्वारा मेरे वध से मेरा अंतिम सांख्यिकी कर्तव्य पूरा होगा।
अब ये अवसाद क्यों? क्या मैंने अपने कर्तव्य के पालन में सदा कोई अनुचित कार्य नहीं किया? मुझे क्या अधिकार था अपनी नारायणी सेना को दुर्योधन के समर्थन में भेजने का जब कि यह निश्चित था कि जो भी दुर्योधन के पक्ष में युद्ध करेगा उसकी मृत्यु निश्चित होगी। मुझे नहीं पता इतिहास मुझे इसके लिए क्या कहेगा!!
गांधारी ने लांछन लगाया की युद्ध मेरे कारण हुआ, और अभिशाप दे डाला। परन्तु मैंने, इस कृष्ण नामक पुरुष ने पांच गांव की मांग कर युद्ध को रोकने की ही चेष्टा करी थी।वो शिव भक्तिनी जो अपने पुत्रों को विजयश्री का आशीर्वाद नहीं दे पाई क्यों कि उसने उनके अन्यायों को कभी क्षमा नहीं किया लेकिन उनकी मृत्यु का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर डाल दिया। और मैं कुछ भी ना कह कर चला आया।
हे व्याध, तुम कब आयोगे, तुम्हारा जन्म भी तो मुझे मारने के उद्देश्य से ही हुआ है। आओ, अपना कर्तव्य पूरा करो, मुझे भी मुक्त करो इस शरीर से, तुम्हारे प्रति देय कर्तव्य से। चलो, दोनों मुक्त होते हैं।
यह अंतिम क्षण, जो हर प्राणी के जन्म के साथ ही अविछिन्न रूप में जुड़ जाता है, इन क्षणों में, यह जानते हुए कि यह देह मेरा परिचय नहीं है, मैं तो अपने इस शरीर जीवन की स्मृतियों में विचरण कर रहा हूं।
आज उस माखन की स्मृति मेरे जीभ पर जैसे एक अनुभूति ला रही है जैसे कि शरीर को छोड़ने से पहले अंतिम बार नंद गांव के माखन का स्वाद चख लूं। अन्तिम बार यशोदा माता की गोद में आंख मूंद कर सो जाऊं। एक अंतिम चुम्बन उस माता का मेरे माथे पर, पर नियति को कहां स्वीकार्य हो सकता है। मैं तो उसके पास गया ही नहीं, एक बार जो नंद गांव से बाहर आया था । क्षमा माता, इस अन्यायी पुत्र को क्षमा करना। क्षमा नंद गांव, तुम्हारा स्नेह अनन्य था । श्रद्धा, भक्ति, डर, नमन, जीवन में सब मिला। जो नंद गांव ने मुझे दिया, वो स्नेह, वो बंधन, उस चपल बालक के प्रति वो असीम वात्सल्य, वो अतुलनीय था।
स्वागत व्याध, में तुम्हे देख रहा हूं। आओ, अपना विष युक्त वाण मेरे शरीर में क्षेपण करो, और आज की पृथ्वी के, इस युग के, अंतिम व्यक्ति को उसके शरीर से मुक्त करो। अनंत धाम में मेरी अनंत प्रतीक्षा का अंत करने में ब्रह्मा की सहायता करो।
स्वागत है व्याध, और धन्यवाद इस सहायता के लिए।
अनूप मुख़र्जी "सागर"
१६ जून २०२०
A very good narration in Hindi. Really beautiful. Every word is innovative. Keep it up, dear Anup.
ReplyDeleteVery thoughtful and Hindi words are delightfully used.
ReplyDeleteThe words in hindi vocabulary proves the narrator's knowledge of words and what else more to say when at this situation narrator describes such a a beautiful mythology
ReplyDeleteBeautiful thoughts and describe beautifully.Good luck Sir.
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