प्राप्ति, संतुष्टि, और अभिमान

प्राप्ति, संतुष्टि, और अभिमान 


जीवन का लक्ष्य सदा रहा
मेरा जो प्राप्य, वो पाऊं ,
वंचना के गणित में
कहीं मैं हार ना जाऊँ।

उसने बोला था मेरी बात मानेगा
उसने सुनाई  थी , मेरे प्रति कर्तव्यों की गाथा,
दिया था उसने अधिकार मुझे
ग्रहण किया था मैंने उसका दान।

अधिकार का व्यवसाय न होता कदापि,
कर्त्तव्य तो अमूल्य ही सदा,
दोनों तथ्य संसार को
समझाया मैंने सदा।

किसी के कर्त्तव्य की कीमत ?
आकलन तो मेरी क्षमता के परे ।
अमूल्य का मूल्य निर्धारण करूँ ?
वो तो मेरी असमर्थता ही होगी।

अधिकार कोई छीन लेगा,
यह अनहोनी तो न होगी,
मेरा प्राप्य मैं छोड़ दूँ,
प्रतिश्रुति ऐसी तो न दी होगी।

मेरे कर्त्तव्य की प्रतिज्ञा
मैंने पालन की अवश्य
असंतुष्ट कोई अगर हो, तो हो,
'कर्त्तव्य' की परिभाषा! मेरी ही थी।

तुम्हारा कर्त्तव्य मेरे प्रति,
वो तो तुम्हारा दायित्व,क्षमता तुम्हारी?
वो तो मेरा कार्यक्षेत्र से परे,
'कर्त्तव्य' की परिभाषा, वो मेरी ही थी।


जो मैंने लिया, मेरा ही अधिकार था,
दूसरे का कर्त्तव्य, वो मैंने बाध्य किया। 
अ-प्राप्ति का गणित ,
और प्राप्ति का गणित, सब मैंने ही किया। 

गणित की प्रतिद्वंदिता ?
मैं उसका सदा रहा विजयी,
विजय वंदनहार , मैंने स्वीकारी ,
परीक्षोपरांत, हार मैंने ही स्वीकारी । 

 प्राप्ति का अभिमान,
विश्व से छीन लिया मैंने 
जय की हार का मूल्य,
कहीं कुछ तो खोया मैंने। 

अ-प्राप्ति के गणित में 
विजयी तो मैं ही रहा। 
प्रतिवादी मेरा जीवन, 
अपना सब मैंने छीन पाया । 

अपना सब मैंने छीना पाया,  
किसी ने कहा, संभवतः, शव ही छीना। 
मैंने कहा, मैं अंतिम विजेता,
किसी ने कहा, मैं कदाचित, एक विजित। 





4 comments:

  1. मुझे दोबारा पड़ना पड़ा समझने के लिए। बहुत खूब।

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  2. Excellence beyond words

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  3. Each word conveys what cannot be expressed except by own experience

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  4. VERY NICE INSPIRING

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