डाकू और इंसान

 


जी हां, डाकू और इंसान। एक ही व्यक्तित्व में दोनो रूप, और यह कहानी सच है, कौन, कहां, ये सब प्रश्न न ही किए जाएं और न ही उनका कोई उत्तर होगा।

मेरे घुमक्कड़ व्यवसायिक जीवन में 400 से ऊपर बैंक की शाखाओं में जा चुका हूं और कई दास्तान दिल में जमा हैं। उनमें से एक आज उंगलियों पर उभर आई।


एक अफसर की कहानी उसकी जुबानी :

मेरी नौकरी के 3 साल हुए थे। तीसरी शाखा जो मिली वो दूर दराज के गांव में थी। उस समय के मध्य प्रदेश का एक ऐसा इलाका जो मध्य प्रदेश ओडिशा सीमा  के अत्यंत पिछड़े इलाकों में से एक था। बैंक से हर शाखा को एक मोटर साइकिल दी जाती जिस पर हमें गांव गांव घूम कर काम करना होता। उस शाखा में पहुंचने पर देखा कि ज्यादातर ऋण के कागजों का नवीनीकरण नहीं हो रखा था।

छोटी सी शाखा, कुल छह लोग। तीन को लेकर इस काम को शुरू किया और काफी हद तक काम आगे बढ़ाया। समस्या आई पड़ोस के एक गांव में जहां करीब 15 खातेदार थे और शाखा से कोई भी वहां जाने को तैयार न था। विशेष कर एक रंजन प्रसाद जिसका कागज 6 साल से ज्यादा पुराना था। उस पर कोई कार्यवाही नही हुई थी। मुझे मालूम था कि अगर इतने पुराने कागज मैं छोड़ गया तो अगली पदोन्नति की सोच भी मुझसे दूर भागेगी। मैने जोर दिया तो हर एक ने कह दिया कि अगर जाओ तो अपने जोखिम पर।

खैर एक छुट्टी के दिन सुबह बाइक ले कर उस गांव में पहुंच गया। जिस किसी से पूछा रंजन प्रसाद का घर, वो रास्ता बताए और मुंह बना दे। मकान बहुत बड़ा था। कुंडी खड़काई, दरवाजा खोला एक वृद्ध ने। "बताओ, कौन हो और क्या काम है?"

छः फुट लंबे, चेहरे पर चमक, गठीला बदन, कम से कम 70  साल के होंगे, उनको देख सहजता से मैने पैर छू कर नमस्कार किया।

"जी, मैं सागर प्रसाद, बैंक से आया हूं। रंजन जी ने ऋण लिया था, उनके हस्ताक्षर लेने है। क्या वो मिलेंगें?"

"अंदर आओ बेटा  सागर, बड़ी दूर से आ रहे हो। बैठो, पानी पीयो, उसके बाद बात करते हैं। मैं रंजन का दादा हूं। उसकी दादी और मां वो बैठी है चारपाई पर।"

मैं फैले से अहाते में गया और रंजन के दादी और मां को भी प्रणाम किया। उनके मुंह से आशीर्वचन निकले, लेकिन दोनो कमरों में चले गए।

"बेटे, क्या तुम नहीं जानते रंजन के बारे में?"

"जी नहीं, क्यों, वो ठीक तो है न?"

"रंजन जेल में है,  दो महीने लग सकते है ज़मानत मिलने में। तुम को किस कागज पर दस्तखत चाहिए वो हमें दे दो। बाद में आकर ले जाना।"

उसके बाद की कहानी छोटी है, लेकिन चरित्र चित्रण में बहुत बड़ी। दस्तखत करवाने मैं भी उनके साथ तय समय पर जेल गया। रंजन के साइन हो गए और मैं वापस बैंक आ गया। 

करीब तीन महीने बाद अचानक शोर सा उठा, सारे ग्राहक सहमे हुए से लगे। बैंक के बाहर दो जीपों में सात आठ लोग बंदूकों के साथ हाजिर थे। एक खाली हाथ उतर कर बैंक में आया और सीधा मेरे केबिन में पहूंचा। लंबा तगड़ा, गठीला बदन। खुद को संयत कर पूछा, कहिए, क्या कर सकता हूं आप के लिए?

वो आगे बढ़ कर मेरा चरण स्पर्श करने को झुका तो मैं चौंक कर खड़ा हो गया और रोका उसको।

"मैनेजर साहब, मैं रंजन। जेल में आपने बहुत दूर से देखा था इसलिए पहचाना नहीं। साहब, मैं कोई पैदाइशी बदमाश नहीं। बस समाज ने बना दिया। आज सब मुझ से डरते हैं, मेरे घर वालो से भी। लेकिन सही इज्जत कोई नही देता। बंदूक पास न हो तो कोई पूछे भी नहीं और अब यही जिंदगी है। लेकिन आप पहले आदमी है जिसने मेरे दादा, दादी और मां के पैर छूए। आपने इज्जत दी, मैं आपका गुलाम हो गया। "

रंजन ने  ऋण की लगभग आधी रकम जेब से निकाल कर मुझे दी। " सिर्फ दस्तखत ही नहीं, मैने जो आज तक कुछ भी नही दिया, वही मैं वादा करता हूं पूरा ऋण चुका दुंगा।"

"रंजन जी, पैदा तो हर कोई बराबर होता है। बस परिस्थितियां बनाती या बिगाड़ती है। आप मेरे पास आए हैं तो चाय पीजिए।"

चाय मंगवाई और पी गई। रंजन ने यह भी कहा, "मेरे और पास के दो गांवों में अगर कोई भी कागज पूरे करने में मनाही करे या बैंक का पैसा वापस न दे तो मेरी जिम्मेवारी होगी। आप सिर्फ मेरे घर पर संदेशा भिजवा दीजिएगा।"

"बहुत धन्यवाद रंजन जी। अगर कुछ हुआ तो बताऊंगा।" 

"बस मैनेजर साहब, दो बातों का ख्याल रखिये। एक, बैंक का कोई आदमी किसी से फालतू की वसूली ना करे और बेइज्जती न करे।"

मैंने अपने सभी स्टाफ को बुलाकर रंजन का संदेश दिया।  रंजन के चरित्र के इस आयाम को देख कर मैं मोहित था। एक आदमी जिससे सब डरते थे मेरे सामने ऐसे बैठा था जैसे की मेरा सुघड़ सहकर्मी या पुराना दोस्त हो। दूसरी तरफ सभी स्टाफ को बुलाना जरूरी समझा कि कहीं किसी पुलिस अधिकारी को मेरे ऊपर शक न हो और पता चले कि वो ही मेरे पीछे पड़ गए।

उस शाखा में मैं दो साल था और मुझे कभी कोई तकलीफ नहीं हुई। यहां तक की दिवाली के मौके पर उसके दादा भी मुझे मिलने बैंक तक आ गए।

इन चरित्रों को देख कर मेरा विश्वास और मजबूत हो गया, जो दिखता है, सुनाई देता है, जरूरी नहीं की वो अकेला सच ही। 

सही और गलत, अक्सर उस पल पर निर्भर है, हमेशा शाश्वत नहीं होते।


अनूप मुखर्जी "सागर"

 

1 comment:

  1. Bahut achcha vivran. Circumstances change many but discrimation must be exercised while choosing good or bad.

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