एक बार फिर गंगासागर

एक बार फिर गंगासागर 


आज एकबार फिर गंगासागर।  सागरतीर्थ गंगासागर में पानी के किनारे मेरा सागर आज मेरा अंतिम कार्य, वार्षिक संस्कार कर रहा था। मुझे उसको छोड़े हुए एक साल हो चुका है।  यह एक साल न वो मुझे भूल पाया और न मैं उसे भूल तो क्या, छोड़  भी नहीं पायी।  लेकिन अब तो उसे छोड़ना  ही था। अपनी इस कायाहीन उपस्थिति के अंतिम दिन मैं अपने सागर को एक क्षण के लिए भी निहारना नहीं छोड़ रही थी। मैं अपनी उपस्थिति उसको अनुभव नहीं करा सकती थी, उसकी कोई उपयोगिता भी नहीं थी।  

मैं देखती सागर अक्सर मेरे ख्यालों में खो जाता।  अक्सर उस अस्पताल के सामने चला जाता जहाँ वो मुझे इलाज के लिए ले गया था ताकि मुझे घर वापस ले जाय। अस्पताल में उसका चेहरा रोने का हो जाता, उसकी आंखे मुझे ही ढूंढ रही होती। 

हम दोनों  तीस पार कर चुके थे और शादी के छह साल होने वाले थे।  माँ, बाबा, अम्माँ और बाबूजी (सागर अपने माता पिता को वो यही बुलाता, और इसलिए मैं भी) सब के मन में एक आस थी, अब संसार में एक और आगमन हो। 

सागर से मिलना और उससे मेरा मिलन होना, एक सपने की तरह था।  उसमे कोई रोमांच था, न रोमांस। 

मैं भोपाल में कॉलेज और उसके बाद एम ए के बाद नौकरी ढूंढ रही थी।  भोपाल में छोटी मोटी नौकरी कर रही थी। तभी दिल्ली के एक विज्ञापन पर नज़र पड़ी, और  आवेदन कर दिया।  इंटरव्यू का बुलावा भी आ गया और मैं रात की गाड़ी पकड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गयी।  दिल्ली में मेरा अकेले आना पहली बार था।  माँ - बाबा के साथ पहले आयी थी घूमने।  

दफ्तर का पता और चिठ्ठी के साथ एक और पता ले कर आयी थी उस दिन। माँ-बाबा दोनों ने बार बार बोल दिया बेटा, वर्मा अंकल और आंटी से ज़रूर मिल कर आना।  वर्मा अंकल और उनके परिवार की याद थी मुझे।  जब मैं करीब १०-१२ साल की थी तो भोपाल में ही वो लोग रहते थे और उनका एक ही बेटा था जो मुझसे बड़ा था।  बेटे के साथ तो घुली मिली नहीं, वो कहीं बाहर होस्टल में था। लेकिन आंटी मुझे बहुत प्यार करती थी और उस समय मेरे पढ़ने और शाम के नाश्ते का जैसे उन्होंने बीड़ा उठा रखा था।  शायद ही कभी मैंने शाम का नाश्ता अपने घर पर किया हो, और वो घर भी तो मेरा ही हो रखा था। इधर थोड़ी डांट पड़ी नहीं, मैं दौड़ पड़ी उनके घर। बात को गुजरे १२-१३ साल हो चुके थे लेकिन उनकी याद, और घर पर उनकी बातें, अक्सर हमारे घर पर चक्कर लगा जाया करते थे। 

 निजामुद्दीन स्टेशन पर उतर कर वेटिंग रूम या प्रतीक्षालय में जाकर अपने आप को जितना संभव तरोताज़ा कर लिया।  उसके बाद सीधा पहुंची ऑफिस।  पहुँची थोड़ी देर से, करीब दस मिनट।  जाने क्यों, अब तक जो निश्चिंतता थी गायब हो गयी और तनाव ने घेर लिया था मुझे। मुझे एक व्यक्ति की मेज पर भेज दिया, उनके सामने दो कुर्सियां पड़ी थी।  मैंने उनका ध्यान आकर्षण करने के लिए बोली, 'सर गुडमॉर्निंग,  मैं स्मिता शर्मा, भोपाल से आयी हूँ इंटरव्यू के लिए।'  ज़नाब तो अपने कागजों में खोये हुए थे, कुछ सुना ही नहीं।  

फिर मुझे याद आया मेरी सहलियां कहती है, तू इतना धीरे बोलती है न की सुनने वाले को बुला लिया कर कि तू बात करने वाली है।  खुद पर ही हँसी आयी, और थोड़ा ज़ोर से बोली, 'हेलो सर, गुड़ मॉर्निंग, मैं स्मिता शर्मा, भोपाल से आयी हूँ। '

सज्जन का नाम कहीं लिखा नहीं था, और मुझे जरुरत भी नहीं थी।  उनको सुनाई दिया और बोले, 'आप दस मिनट देरी से आयी हैं।  अगर आप इंटरव्यू में ही देर से आ सकती हैं तो आगे क्या करेंगी।' 

मैं अपने आप में दुबकी, बिखरी,  जा रही थी।  खुद को इकठ्ठा किया और बोली, सर, वो सीधा स्टेशन से आ रही हूँ।  जगह का ठीक से पता नहीं था इसलिए ऑटो में देर हो गयी। 

उसके बाद फार्म भरना, अंदर जा कर इंटरव्यू देना, और वहीँ पर मुझे पता चलना कि मेरा चयन नहीं होगा।  बाहर बैठी दूसरी लड़कियां मुझसे बड़ी और अनुभवी नज़र आ रही थी। मैं चलने से पहले जिनके सामने फार्म भरा था उनको धन्यवाद किया और वहां से निकल आयी।  बाहर आकर एक और ऑटो लेकर सीधा वर्मा आंटी के घर।  मेरा प्राथमिक इरादा तो उसी दिन रात  को भोपाल जाने का था लेकिन आंटी ने निकलने नहीं दिया और उनके लाड़ के सामने मेरी एक न चली।  बातों बातों में मैंने इंटरव्यू और ऑफिस के बारे में बताया तो आंटी और मेरा दोनों का मुँह खुला का खुला रह गया।  मैं उनके बेटे सागर के ऑफिस में इंटरव्यू दे कर आ रही थी। 

खैर, नहा धोकर खाना खा कर आंटी के साथ उनके बिस्तर पर बैठ कर बतियाते बतियाते कब सो गयी मुझे पता ही नहीं चला।  बीच में आंटी ने दो तीन बार पूछ लिया, तू कमज़ोर क्यों दिखती है, तेरी आँखों के नीचे काले गड्ढे क्यों, इत्यादि जिनका जवाब नहीं था। मैंने तो मज़ाक में स्वीकार कर लिया था कि यह बिउटी स्पॉट हैं  मेरे।  आंटी ने प्यार से चपत लगा दी और ढेर सारी हिदायतें दे डाली, दूध पीया  कर, मछली खाया कर, दिन में चार बार खाना खा इत्यादि इत्यादि।  इतनी कमज़ोर सी दिखती है तो कौन शादी करेगा तुझसे।  और इन सब बातों के बीच निंदिया रानी ने मुझे अपने आग़ोश में भींच लिया और मैं उसकी गोद में खो गयी।  

आंटी ने जगाया तो शाम ढल चुकी थी, सूरज छिप गया था और हल्का अँधेरा आने लगा था। उन्होंने मुझे बोला उठकर मुँह हाथ धो ले, सागर आ गया है, उसके साथ तुझे भी चाय देती हूँ।  अंकल भी आने वाले हैं। तेरे लिए कपड़े रखे हैं मैंने, पहन कर बाहर कमरे में आ जा। 

बैठक में देखा सागर वर्मा जी आँख बंद कर आराम फ़रमा रहे थे।  आंखे बंद, हाथ में चाय का कप, और सामने टेबल पर शाम का नाश्ता। मैंने  बुलाया, सागर जी नमस्ते।  ज़नाब तो शायद खो चुके थे।  दो तीन बार नमस्ते किया तो आंटी जी ने ज़रा जोर से कहा, अरे कहाँ खो गया, इतनी देर से स्मिता नमस्ते कर रही है और तुझे पता ही नहीं।  आंटी की आवाज़ सुन कर सागर का ध्यान टूटा और जैसे मुझे देखकर कुछ क्षणों के लिए हक्के बक्के हो गए।  फिर उनकी आवाज़ फूटी, अरे आप। 

मैं बोल पड़ी, कहाँ खो गए थे आप।  मुझे तो यहाँ आ कर पता चला कि में दिन में आप से मिलकर आ रही हूँ। 

थोड़ी देर में अंकल भी आ गए और चारों  जाने इधर उधर की बातें करते रहे।  टीवी भी चलता रहा।  लेकिन कभी कभी मुझे लग रहा था की सागर की आंखे मेरी आँखों को तलाश रही है।  वो सीधा मेरी आँखों में देखने की कोशिश करते और फिर नज़रे चुरा लेते। 

खैर, तीन दिन वहां कटे और सारा समय आंटी के साथ बहुत अच्छा कटा।  वो मुझे मेरे बचपन का सारा लाड़ याद दिला रही, यह खाओ, वो खाओ, बाजार में जा कर यह खरीदना, वो खरीदना।  मेरे घर पर सब के लिए आंटी ने कुछ न कुछ ख़रीदा।  और सागर को कहकर मुझे तीन दिन बाद रवाना कर दिया। सागर एक साधारण सा, सुघड़, संस्कार वाले घर का लड़का था।  मुझे कभी उसने किसी असमंजस में नहीं डाला, लेकिन मुझे हमेशा लगता रहा वो मेरी तरफ देखने की कोशिश कर रहा है।  

करीब छः महीने बीत गए थे, एक दिन घर पर फ़ोन आया वर्मा अंकल और आंटी भोपाल आ रहे है।  माँ बाबा के साथ साथ मुझे भी ख़ुशी हुई क्योंकि आंटी के साथ समय बहुत अच्छा बीता  था। 

उनके आने के दूसरे दिन मेरी छुट्टी थी।  माँ और आंटी ने सुबह नाश्ता बनाया और हम सब दालान में बैठ कर नाश्ते की तैयारी कर रहे थे।  तभी आंटी ने कहा, स्मिता, तुझे दिल्ली कैसा लगा ?

'क्यों, अच्छा खासा शहर है, अच्छा ही तो लगेगा, उस पर आपके साथ कितनी जगह गयी। '

'अच्छा, अगर तुझे मैं हमेशा के लिए मैं दिल्ली ले जाऊं तो ?'

'हमेशा के लिए? नहीं बाबा, उससे तो अच्छा है आप यहाँ पर आ जाएँ।  मैं एक दो साल नौकरी कर सकती हूँ, हमेशा के लिए नहीं। '

'पर मैं तो नौकरी की बात ही नहीं कर रही, क्यों बहन,' अब आंटी मेरी माँ की तरफ मुखातिब हुई, 'अगर मैं स्मिता को हमेशा के लिए ले जाऊँ तो ले जाने दोगी ?'

अब बात की गंभीरता को समझ मैं कुम्हला गयी, जैसे मेरे होंठ सिल गए। 

'सही में दीदी, तुम स्मिता को हमसे ले जाना चाहती हो ?'

'हाँ बहन, स्मिता को मैं हमेशा के लिए मांगती हूँ, इसको मैं अपनी बेटी बनाकर रखना चाहती हूँ। और सागर भी उसको पसंद करता है। अगर स्मिता किसी को न चाहती हो तो बेटी, मेरे पास आ जाओ। '

मेरे हाथ नाश्ते थाली में ही जमे थे, साँस जैसे रुक थी।  घर पर माँ और बाबा मेरे बहुत अच्छे दोस्त थे और उनके होते हुए किसी सहारे की ज़रूरत न पड़ी थी। कई सहेलियाँ चल पड़ी थी अपने अपने पसंद के जीवन साथी बनाने, लेकिन मैं अभी दूर थी। मेरी जड़ जैसी परिस्थिति, और माँ और बाबा का किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाना, यह देख कर आंटी अपनी कुर्सी से उठी और मेरे पास आकर मेरे सर पर हाथ रखा, और दूसरे हाथ से नाश्ते का ग्रास मेरे मुँह में दिया। मैं, बैठे बैठे ही उनसे लिपट गयी। सागर के बारे में नहीं, आंटी का अपनापन मुझे उनकी तरफ खींच गया।  अंकल और बाबा भी उठ गए और एक दूसरे के गले लग गए।  माँ भी आंटी के गले लग गयी। 

हमारी आर्थिक स्थिति वर्मा अंकल के मुकाबले कहीं नहीं थी।  बाबा ने इस बारे में बात उठाई, हल्का सा, 'आप मेरी स्थिति जानते है, मैंने कभी कुछ नहीं बचाया, खर्चा मैं आपके बराबर का नहीं कर पाऊंगा। '

अंकल ने प्यार से बाबा का हाथ पकड़ा और कहा, 'मुझे बेटी चाहिए, बेटी लेने की कीमत नहीं। हाँ एक बात ज़रूर है, हमारे घर में स्मिता के साइज़ का कोई नहीं है इसलिए इसके कपड़े ज़रूर दे देना। बाकि सब बंदोबस्त हम करेंगे। '

उनका दो तीन दिन का रुकना एक निर्मल बहती हुई नदी सा था। बड़ो की बातों में मुझे नहीं लिया गया, उन लोगों में आपस में बाते होती रही।  क्योंकि मेरी दादी का देहांत हुआ था, तो बाबा ने कहा एक साल तो शादी की नहीं सोच सकते, उसके बाद हो सकती है।  यह भी बात हुई  कि सागर और मेरी एक मुलाकात कराई जाय लेकिन कोई फैसला नहीं हुआ। 

समय बीतता चला गया।  आंटी और अंकल दो बार भोपाल आये और एक दिन आंटी ने मुझे कहा, बेटी, यह अंकल आंटी छोड़ , अब तू भी हमें अम्मा और बाबूजी कहा कर।  एक बार हम सब भी दिल्ली हो कर आये, और एक बार सागर आकर हमारे घर दो दिन रुका।  उसका वही शांत ठहरा हुआ चरित्र उसको दूसरों से अलग करता था।  एक दिन हम दोनों झील पर गए तो उसने पूछा था, क्या तुम गाना गाती हो।  मैंने कहा नहीं, तो उसने कहा, तुम्हारी आवाज़ लगता है किसी वीणा के ह्रदय से निकल रही है, जैसे की किसी शांत झील पर हलकी हवा की थपकी पड़ रही हो।  पहली बार किसी को अपने बारे में कुछ कहते सुना, अच्छा लगा। 

सागर और अम्मा, दोनों ने मुझे पूछा था की क्या मेरी तबियत ठीक नहीं रहती।  मैंने कहा था कि सहेलियों के मुकाबले शायद उतनी शक्ति और ऊर्जा न हो, लेकिन तबियत की कोई समस्या नहीं थी। 

समय बीता , शादी हो गयी। शादी के बाद हमने घूमने का कार्यक्रम बनाया,  उसमें बड़ा तीर्थ, बर्फीले पहाड़,समुद्र और जंगल, सब कुछ शामिल करने की इच्छा से हमने असम के कामाख्या मंदिर से शुरुआत की।  दार्जिलिंग के बर्फीले पहाड़ देखे, सुन्दर वन का जंगल देखा और गंगा सागर का तट। 

गंगा सागर के समुद्र पर न जाने क्यों मन थोड़ा भारी हो गया था। उस दिन सागर ने बताया जब उन्होंने पहली बार मुझे देखा था ऑफिस में, तब उनके मन में एक अलग सी भावना आयी थी, शायद पहली बार।  उसके बाद शाम को घर पर देखकर एक अजीब सी ख़ुशी हुई थी।  

वहीँ पर मैंने सागर को पूछा, 'सुना है होस्टल मैं रहने वाले प्रेम विवाह करते हैं, तुम उस रास्ते पर नहीं गए ?'

उसका जवाब भी जैसे कानो में शहद घोल कर दिल दिमाग को छू गया।  'कभी ज़रूरत नहीं समझी, लेकिन तुम्हारा चटकीली चमक से अलग व्यक्तित्व मुझे बहुत प्रभावित कर गया, ऐसा समझो की कच्चे नारियल की मलाई की शुभ्र स्वेत नम्रता झलकती है। कभी ऐसा लगता है की मैं सागर एक निस्चल स्थिर अवस्था में था, तुम एक नदी की तरह आई और सागर में लहरों का प्रवाह भी शुरू हुआ। '

तीन दिन के उनके घर पर निवास में  वो जैसे मेरी उपस्थिति में  खो से गए थे, और मैं उनकी । उनका कहना था, 'कभी सोचा नहीं था किसी को प्रेमिका के हिसाब से देखूंगा, या किसी से प्रेम सम्बन्ध बनाऊंगा।  लेकिन स्मिता, तुम्हारी उपस्थिति ऐसे थी कि जाने के बाद तुम कुछ खोखलापन छोड़ गयी थी।' दिमाग में कुछ खास बेशक कुछ न हो, कभी कभी अम्मा से पूछ लेते थे हमारे बारे में, कैसे है स्मिता और उसके माँ बाबा। एक दिन अम्मा बाबूजी ने बात छेड़ी और बात आगे बढ़ गयी। 

मैंने कहा, मैं कोई खूबसूरत तो हूँ नहीं, ऐसा क्या पसंद आया।  सागर नें कहा, खूबसूरती तुम्हारी आँखों में, जैसे इस समुद्र का आसमानी रंग समा गया हो तुम्हारी आँखों में। तुम्हारी आवाज़, इतनी नर्म, लेकिन लगता है कि समुद्र की गहराई से या फिर ऊँची ऊँची पहाड़ों की चोटिओं से हलकी सी गूँज आ रही हो। जैसे प्रकृति की आवाज़ ध्यान से सुननी पड़ती है वैसे ही तुम्हारी भी।  

मैंने उस दिन कहा था, सागर, मैं अपने मरने के बाद अपने सागर के हाथों इस गंगासागर में अपनी वार्षिक श्राद्ध होते हुए देखना चाहूंगी।  उसने उस दिन मेरे मुँह पर हाथ रख लिया था। 

किसे पता था उस दिन सरस्वती मेरे जीभ पर विराजमान थी। 

कोई बड़ी  घटना या दुर्घटना नहीं हुई और साढ़े पांच साल निकल गए। मैं हमेशा दुबली ही थी, ऊर्जा दूसरों से थोड़ी कम।  पड़ने का शौक बहुत था और छोटी मोटी लाइब्रेरी मेरे पास थी, उसको लेकर मैं भोपाल से दिल्ली आ गयी थी।  शादी के बाद नौकरी करी नहीं,  सारा दिन मैं और अम्मा बहुत अच्छा समय बिताते थे।  कुछ दिनों से लग  रहा था मेरी ऊर्जा कुछ और कम हो रही है। 

एक दिन अचानक मेरा सर घूमने लगा, और बेहोश हो कर गिर गयी।  थोड़ी देर बाद ठीक भी हो गयी और बात आयी गयी हो गयी, सिर्फ एक बात को छोड़  कर।  अम्मा मेरा ध्यान और ज़्यादा रखने लगी। 

एक हफ्ते बाद फिर  एक दिन, और उस दिन मैं, अम्माँ और सागर डाक्टर के पास गए।  डाक्टर को पहले कुछ नज़र नहीं आया और विटामिन की गोलियाँ और फल, अंडा, दूध इत्यादि खाने को बोल दिया।  हाँ, कुछ खून लिया, टेस्ट करना है। 

दूसरे दिन होश आने के बाद से मेरी ऊर्जा पूरी ख़तम हो रही थी।  लगभग सारा दिन लेटी रहती, कब सोती, कब जगती पता ही नहीं चलता।  घर का हंसी ख़ुशी का माहौल बोझिल सा हो रहा था।  

तीन दिन में सारी रिपोर्ट आ गयी। फिर कुछ और, खून, एक्सरे, और भी ना जाने क्या क्या।  डाक्टर ने माँ और बाबा को बुला भेजा।  वो तबियत ख़राब होने से परेशान और चिंतित तो थे, तुरंत आ गए।  मुझे नहीं पता सब लोगो से डाक्टर टीम ने क्या बात की, लेकिन दवाइयां बढ़ गयी थी। माँ, बाबा, अम्माँ और बाबूजी, सारा दिन मेरे आसपास रहते।  कहानी सुनना, बहुत सारी बातें बनाना, और कोशिश करना कि मैं खुश रहूं।  कोई बताने को तैयार नहीं था, क्या हुआ था मुझे, और मेरी जीवन शक्ति क्षीण होती गयी।  दो तीन बार मैं बिस्तर पर ही बेहोश हो गयी।  फिर हस्पताल में भर्ती होना पड़ा।  शुरू में तो सारा दिन कोई न कोई रहता, रात को सागर मेरे पास बैठ कर मेरे बालों में हाथ फेरते जब तक मैं सो नहीं जाती। कहानिया सुनाते हमें कहाँ कहाँ जाना है।  पता नहीं क्या क्या, मेरे गले से आवाज़ लगभग चली गयी थी।  मुझे लगता इस तरह से सागर बोलते रहें और मैं सुनती रहूं। आँखों में सारी बातें आती, कुछ सागर को समझ आती, कुछ नहीं।  बोलने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ रही थी। 
 
फिर मुझे मशीनों के भरोसे छोड़ दिया गया।  दिन में दो बार थोड़ी थोड़ी देर के  घर से आते, पास खड़े  होते, मुझसे हँसते बोलते, और बाहर जाकर रोते। मेरा दिल चीख चीख कर कह रहा था, प्लीज़, मुझे घर चलो।  मैं आप सब के बीच में रहते हुए जाना चाहती हूँ।  मुझे क्या हुआ, मुझे पता ही नहीं चला और मेरी ज़िन्दगी ख़तम होने पर आ रही थी। मेरा दिल, दिमाग, सब चीखता था, अपनी गोद  में ले लो माँ, अम्मा, सुबह का नाश्ता खिला दो अपने हाथों से, बाबा, फिर एक बार साईकिल की रेड वाली सीट पर बिठा कर चक्कर लगवा दो।  बाबूजी, मेरा माथा चुम कर आशीष दे दो जो आपने उसदिन दिया था जिसदिन आप बात पक्की कर के घर वापस जा रहे थे।  मैं बुला रही थी, सागर, ले चलो मुझे, चलो हम उसी सागर तीर्थ गंगासागर पर चलते हैं।  चलो न, चलो सागर, इन मशीनों से आज़ाद कर दो। 

दिन, रात, तारीख, इन सब से ऊपर उठ चुकी थी।  सिर्फ इतना पता था ज़िंदा हूँ।  और एक दिन सुबह सुबह मुझे लगा कोई तकलीफ नहीं है।  मैं खुश हो गयी, अब मुझे जाने देंगे।  एक नर्स आयी, उसको कोई दवा बदलनी थी, मैं चिल्लाई, दवा की जरुरत नहीं, मैं ठीक हूँ।  लेकिन नर्स चिल्ला क्यों उठी ?? उसने फोन किया और चार पांच डाक्टर तुरंत आ गए। उन्होंने दो तीन इंजेक्शन, और एक मशीन से बिजली जैसा झटका दिया।  लेकिन मुझे न तो इंजेक्शन का दर्द हुआ, न बिजली का झटका महसूस हुआ।  मैं हैरान थी, यह लोग इतने परेशान क्यों है, मुझे घर क्यों नहीं भेजते ?

सारी मशीने खोल डाली, और मेरा शरीर एक सफ़ेद चादर में ढक दिया।  मैं यह सब देख रही थी, मेरा शरीर, डाक्टर, नर्स, सागर, माँ, बाबा, अम्मा, बाबूजी।  पांचो के चेहरे रोते हुए, आंखे लाल, तब मुझे एहसास हुआ की मैं तो छोड़  चुकी हूँ।  स्मिता, सिर्फ एक नाम रह गया था। उसके होंठ, उसकी आंखे, सिर्फ शरीर रह गया था, आवाज़ खो गयी, नज़रें विलीन हो गयी। 

मैं देखती रही, और मेरा शरीर आग की लपटों में खो गया।  सुन रखा था मृत्यु के बाद आत्मा दूसरी दुनिया में चली जाती है।  पता नहीं वो दूसरी दुनिया क्या  है,लेकिन मैं तो यही पर थी।  सब कुछ पकड़  कर,जकड़ कर रहना चाहती थी।  क्यों उसने, अगर कोई है, तो उसने क्यों बुला लिया।  मैं सोते हुए बाबा के पास जाकर सो  जाती, माँ और अम्मा की गोद में जाकर सर रखकर सो जाती, लेकिन उन सबको कुछ पता ही नहीं चलता।  सब की आँखों का बाँध तो मानो हमेशा भरा हुआ रहता, बात बात में पानी आ जाता।  मेरा ग्यारहवें दिन का श्राद्ध हुआ, मैं देखती रही।  मुझे गंगासागर जो जाना था अपने सागर के साथ।  उसकी बाँहों में जब वो भींच लेता, मैं कितना सुरक्षित महसूस करती।  उसकी बाँहों की सुरक्षा मुझे वापस चाहिए थी।  

मैं वंचित ही रही, प्यासी ही रही।  और आज एक वर्ष हो गया उस मनहूस दिन का। सागर, माँ, बाबा, अम्मा, बाबूजी सब सागर तीर्थ पर थे आज ।  सागर उन सब को लेकर आये थे।  सागर, शांत तो हमेशा थे, अब एकदम चुप से हो गये  थे। जैसे प्रयाग की अंतःसलिला सरस्वती की तरह, जिसका नाम था, बहाव भी था, लेकिन मानव अनुभूति से परे।  उनकी आतंरिक व्यथा को मैं समझ पा रही थी, और माँ, बाबा, अम्मा और बाबूजी भी। कोई उनको अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। 

आज मैं अपने सब अपनों का अंतिम दर्शन कर रही थी, आज सूर्यास्त के साथ मेरा यह विचरण समाप्त हो जायगा। मान लेना ही अच्छा था, कि मेरी ज़िन्दगी इतनी ही थी। 

अलविदा सागर, अलविदा माँ, बाबा, अम्माँ , बाबूजी।  मैं सब का इंतज़ार करुँगी, फिर मिलेंगे।  तब अपनी गोद में सुलाना, अपनी बाँहों में भींच लेना, और मैं भी आप सब के कंधो पर बहुत रोऊँगी, क्यों आप सब ने मुझे जाने दिया। रोक लेते, भींच लेते, मैं मना नहीं करती। मैं तो आप सब की गोद में जाना चाहती थी, उन मशीनों के बीच में नहीं।  चलिए, सूर्यास्त हो रहा है।  विधाता का रथ आ चुका है, अलविदा, अलविदा, अलविदा !!


जून २६, २०२० 

3 comments:

  1. Beautifully and sensitive writing, I had a lump in my throat while reading it. It's very difficult to write about the feelings of a person who is dead or about to die. Excellent effort. Keep it up.

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  2. Very beautiful and touching story excellent keep it up

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  3. Congrats for expressing emotions so beautifully. Every word of the story is one flower and when each of such flower is strung together in a thread it becomes an attractive garland which everybody appreciates. Keep it up dear.

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