पक्षी और मानव संवाद

पक्षी और मानव संवाद 

स्वपना भट्टाचार्य और अनूप मुख़र्जी द्वारा 
विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर 


एक चिड़िया, 

मुक्त आसमान से आयी, 
मैं एक छोटी सी चिड़िया। 
तिनका लिए शाख पर बैठी 
घर बनेगा उन्मुक्त, मेरा। 

स्वतंत्र आसमान  मेरा,
उन्मुक्त अबाध विचरण। 
शाख पर घोसला, सब एक साथ 
करेंगे मिल कर, हम भरण पोषण। 

अश्रु लिए वृक्ष बोलै, 
कुछ पल का जीवन शेष। 
कुल्हाड़ी लिए खड़े मनुष्य 
मिटने को मेरा अवशेष। 

 ना रुक इस ठौर चिड़िया, 
शाख यह न रहेगी अब। 
खाक हुए मेरे अरमान 
शाख ये चंद लम्हों का मेहमान। 

चिड़िया उड़ी , बैठी जा एक आँगन 
घोसला यही बनायें, बोल उठा साजन। 
निर्जीव आंगन कराह कर बोल उठा, 
मत बसा घर यहाँ, मेरे भगवन। 

देख यह शैतान खड़े , 
मिटाने हमारी कहानी।  
भयभीत चिड़िया फिर उड़ी ,
चली और ठौर ढूंढ़ने सयानी। 

पँखो को अभी और फैलाए 
योजन अभी और दूर कहीं। 
खेतों की मेड़ों पर बैठ चिड़िया,
सुस्ताई, और मुस्कुराई तब कही। 

यही तो है आसमान मेरा
चहक देखो मेरी गूंजेगी। 
घोसला अपना, वच्चे अपने 
शहनाई जैसे घर में बजेगी। 

खेत सुन बात उसकी, 
दुःख से वो कहराया। 
देख मानव वो, सब उजाड़ता ,
उड़ जा तू , ढूंढ ले और साया। 

चल पड़ी गहन वन की ओर ,
छोटे अपने पंख फैलाये। 
न मानव, न उसका मकान ,
आसमान मुक्त, फिरुँगी पंख फैलाये। 

मैं भी अपना आसमान चुन लूँ, 
वट की शाख पर कुछ सपने बन लूँ। 

वट भी मुझ पर मुस्कुराया ,
न मुक्ति मेरी, न आसमान तेरा। 
हैवान देख आते, कहर बरपाते।
बसाले कहीं और रैन बसेरा। 

न मैं घोंसला खुद का बनाऊँ
न ही अपना घर बसाऊं। 
ईश्वर से पूछो, बताओ मुझे 
अपना मुक्त आसमान कहाँ से लाऊं। 

पृथ्वी हमारी भी, 
शाख, पेड़, हवा भी हमारी। 
कैसे सब को अपना बनाऊँ 
इंसान कैसे अहसास दिलाऊं। 

शापित करती इनको 
अधिकार नहीं सृष्टि नष्ट करने का। 
पंछी, जानवर, मछली, और सब से 
उनकी धरती, उनका मन छीनने का। 

एक इंसान 

शापित है हम, कूप मंडुक है हम
धरती को समझा प्रजा अपनी।
खुद कुछ सृष्टि कर न सके हम
वनों की कर दी हमने छंटनी ।

कहते है कि दुनिया है छोटी
राज करेंगे इसपर केवल हम ।
भूले, लेकिन रचयिता नहीं,
रचना का क्षुद्र अंश है हम।

अधिकार नहीं नष्ट करे सब
पृथ्वी, अग्नि, जल और आकाश।
तांडव करती हमारी इच्छाएं
सभी को जाकर हमारा नागपाश ।

खांडवप्रस्थ से अमेजॉन,
उत्तराखंड से ऑस्ट्रेलिया।
भयंकर देखे दावनाल
जानवर आदि सबको हमने भस्म किया।


जलती चिड़िया, जलते जानवर,
प्राणी अन्य, वन्य सभी।
कभी फोटो, कभी आसन,
कभी दिवार पर सजाया मस्तक।
कभी फूलदान, कभी कलम दान,
कभी कंघी, वस्त्र, और केवल
किसी पत्रिका की सहानुभूति कभी।

समझा हमने सभ्य खुद को,
जीवन का अधिकार सीमित खुद को।
ईश्वर रचयिता, हम केवल रचना उनकी
भूल गए ये अर्थ हम, याद रखा सिर्फ खुद को।

श्राप हमने खरीदे है
बेचकर अपना सोच, और ईमान।

पंछी, तुम गलत नहीं, आओ अब, 
अब आओ पंछी, छीन लो अपना आसमान। 


2 comments:

  1. So well described the way we are destroying our mother earth and nature, knowing very well the consequences. We humans need to think and change.

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  2. Very well presented, and nicely composed poems by brother sister duo. Congratulations to both of you dear. Grow well, grow more.

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