निशब्द, निश्चिन्त, शान्त, संध्या,
नीली, फिर स्याह, फिर काली,
अरुण रथ ले चले गए, आई संध्या,
तारों ने सजाई, आकाश की थाली।।
नीली, फिर स्याह, फिर काली,
अरुण रथ ले चले गए, आई संध्या,
तारों ने सजाई, आकाश की थाली।।
कहीं धरती पर फैले गलीचे ये हरे भरे,
पर्वतों की गोदी में बैठ, देखें उसकी रचना,
कहीं नभ का वक्ष चीरते वृक्ष, हरी लताएं,
मानों किसी चित्रकार की, अद्भुत कल्पना।।
पर्वतों की गोदी में बैठ, देखें उसकी रचना,
कहीं नभ का वक्ष चीरते वृक्ष, हरी लताएं,
मानों किसी चित्रकार की, अद्भुत कल्पना।।
कहीं गूंजते शंख, भक्तों के होठों से,
कहीं गूंजती अज़ान, मौलवी के कंठ से,
कहीं पूजते भक्त, शिव, शक्ति, विष्णु,
कहीं अंतर्मन के आराध्य, निराकार ब्रह्म की।।
हर कण में जो उपस्थित, उसके लिए क्या कहूँ,
रचना जिस चित्रकार की, उसे क्या कहूँ।
मैं नासमझ, सोच न पाऊं क्या करूं, मैं
नहीं ढूंढता अब मैं उसको, दिख गया जब,
आत्म समर्पण, पूर्ण समर्पण, तुम्हारे समक्ष,
आकाश में, जमीन पर, वृक्षों में, हवाओं में।।
केवल यही, मेरे "मैं" को कर पाऊं बलिदान,
यही दो, यही केवल दो प्रभु, वरदान।।
अनुप मुखर्जी "सागर"
हमारी भी यही प्रार्थना है।
ReplyDeleteअंतिम वाक्य, क्या बात है आपके सोच की, मैं को कर पाऊं बलिदान, यही मांगे हम सब वरदान।
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