फ्यूज बल्ब
साठ साल कभी किराये के घर और कभी सरकारी मकान में ज़िन्दगी बीत गयी थी। बचपन माँ बाप चाचा और भाई बहनों के साथ कटा। तब भी कभी इस शहर में, कभी उस शहर में। यायावर जीवन स्थिर हुआ, जब खुद को केंद्रीय सरकार की नौकरी मिल गयी और पता चला कि अब तो जीवन एक शहर में ही स्थिर होगा।
महीना पहले सेवा निवृत हुआ था। करीब दस वर्ष पहले एक सोसाइटी की सदस्यता ली थी कि ज़िन्दगी तो यही बीतेगी, क्यों न एक फ्लैट खरीद लिया जाय। दफ्तर के कई लोगों के साथ मैंने भी पैसे जमा किए कभी तनख्वा में से, कभी दफ्तर से थोड़ा उधार लेकर और कभी पी एफ की रक़म उठा कर। खैर, बना बनाया मकान खरीदने से सस्ता, और ज़मीन खरीदकर उस पर बनाने से सहज उपाय सिर्फ यही था। बनते बनते करीब करीब दस साल लग गये। इस कारण जब सेवानिवृति का समय छह महीने दूर रहते मकान पूरा हुआ तो मन को तसल्ली थी की चलो, सरकारी मकान हाथ से निकल जाने पर दर दर की ठोकरें नहीं खानी पड़ेगी। अपने मकान में रहेंगे।
और सेवानिवृति से एक महीने पहले ही अपने मकान में चले आये ताकि अंतिम हिसाब किताब में किसी तरह की कोई दिक्कत न आ पाए। पिछले दो महीने से रह रहा था। ज़्यादातर मालिक लोग तो मेरी तरह या तो रिटायर हो चुके थे या फिर होने वाले थे। हाँ, किसी किसी परिवार में दूसरी पीढ़ी ज़रूर थी जो जवान थी, कोई नौकरी में था और कोई अभी पढ़ाई की चक्की से निकला नहीं था। कुछ ऐसे भी थे जो अपनी कार्यकाल की चक्की से निकल चुके थे और उनकी दूसरी पीढ़ी इस परिवार की चक्की से ही दूर जा चुकी थी। कोई इसी शहर में, माँ बाप के तथाकथित बोझ और शासन (जिसको वो शायद शोषण मानते थे ) से दूर जा चुके थे, और कोई नौकरी की चक्की में गिरकर किसी और शहर में, एक आध किसी और देश में भी पहुँच चुके थे।
खैर, कहानी का असली असला तो कुछ और ही था, और मैं किस मसले पर बोल गया। चलिए आगे बढ़ते हैं।
पार्क, और हर छोटी बड़ी जगह पर कुछ ज़्यादा, कुछ कम और सिर्फ बूढ़ों की जमात लगा करती थी और अपने अपने शौक के अनुसार दुनिया भर की बातें भी होती थी। मेरा फ्लैट नंबर था ५३। मुझे आये दो महीने हो गए थे तो नीचे वाले ५२ नंबर में एक परिवार आया। मुखिया करीब पांच साल हुए खाली हो चुके थे। मुंबई पांच साल की नौकरी किसी बहुत ही ऊँची हैसियत पर, उसके बाद वहीँ पर अपने बेटे के पास पांच साल रुक कर अब अपने फ्लैट पर अवतीर्ण हुए थे। अपने आप को बहुत बड़ी तोप समझने के कारण उनके आने के पहले दिन जब उनको हमने पानी और नाश्ता पेश किया तो ज़नाब ख़फ़ा हो गए की इस तरह का साधारण नाश्ता वो नोश नहीं फ़रमा सकते। वो अपना नाश्ता किसी बड़े से होटल से लेकर आ रहे थे। हम अपना सा मुँह लेकर वापस अपने कमरे में गए और सोचा, चलो, शाम को चाय के साथ जमेगा अच्छा।
हम जैसे कुछ उमर दराज़ मनचलो ने उनका नाम कप्तान साहब रख दिया था और बदकिस्मती से नाम उनके कानो के अंदर प्रवेश कर उनके दिमाग में खलबली मचा गया। बस, वो अपने घर से निकल कर बाहर जाते, और बाहर से आकर सीधा घर पर। कभी किसी बूढो की जमात मैं बैठ गए दो चार पल के लिए तो अपनी तारीफ में इतने कसीदे पड़ जाते की बाकि सब कान के मैल के न होने पर अफ़सोस करने लगते, और हमारे कप्तान साहब अगले दिन अपने लिए कोई और संगत की सोचते।
ऐसे ही एक दिन, कुछ जमातों की तरफ हिकारत भरी नज़र फेंक कर, मानो मंगल वार को हनुमान मंदिर के बाहर बुन्दियां बाँट कर जा रहे हो, थोड़ा आगे निकले थे तो एक काफी बुज़ुर्ग अकेले बैठे हुए दिखे। असल में वो अपनी मंडली का इंतज़ार कर रहे थे और उनकी कद काठी का आकर्षण अलग था। कप्तान साहब उनकी तरफ आकर्षित होकर उनके पास पसर गए। प्राथमिक परिचय में जाना की यह कद काठी तो फ़ौज के अफसरी की देन है तो कप्तान साहब को लगा की उनके रुतबे का कोई मिल गया। कप्तान साहब अपनी भड़ास उनके सामने ही निकाल बैठे।
"मैं तो यहाँ मज़बूरी में आ गया। अपने कार्यकाल में कभी भी इस तरह की सोसाइटी में रहा नहीं। आपको भी बहुत कोफ़्त होती होगी। आप भी तो बड़े बंगलो में ही रहे है। यहाँ तो कोई है भी नहीं आपके सिवा जिसके साथ बैठ कर थोड़ी बात चीत ही की जा सके। " कुछ इस तरह के इत्यादि प्रकृति संवाद हजम करने के पश्चात् हमारे पुराने बुज़ुर्ग जी ने अपनी कथा वाची।
"रिटायरमेंट के बाद हम सब फ्यूज बल्ब की तरह है। जब हम जलते थे, हर कोई देखता था कि हम कितने वाट के हैं। अब हम सिर्फ फ्यूज बल्ब है, और कुछ नहीं। अच्छा होगा आप यह बात जल्दी समझ लें क्योंकि वो आपके हित में होगा। एक फ्यूज बल्ब अगर दूसरे को तोड़ने की कोशिश करेगा तो वो खुद भी दूटेगा , यह समझना और जानना बहुत ज़रूरी है। "
यह छोटा सा भाष्य कप्तान साहब को झिंझोड़ गया , और तीन दिन के अंदर, वो भी ५२ वाले भाई हो गए बाकि सब नंबर वाले भाईओं की तरह। और हम लोग भी कप्तान साहब का नामकरण वाला नाम भूल गए।
जून ५, २०२०
Nice description of some irritating egoistic persons who disturb the tranquility of society. Good job. Carry on with it Anup Mukherjee
ReplyDeleteNice one, good lesson for people who thinks status is everthing in life and finally they loose all good people around them.
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