पुरानी कथाओं में लिखा गया और हमारी कहानी की मुख्य चरित्र ने सुना हुआ था कि मानव जीवन सौ वर्षों का मान के चलना चाहिए , इन सौ वर्षों को चार भागों में बांटा गया था। ब्रह्मचर्य 25 तक; गृहस्थाश्रम 50 तक; वानप्रस्थ 75 तक और सन्यास उसके बाद। यह कहानी एक ऐसे चरित्र की है जिसने इन चार अध्यायों पर विश्वास किया। वर्तमान जीवनचर्या के अनुसार उसको पालन भी करना चाहा। कैसे देश के प्रति समर्पित एक इंसान ने अपनी वानप्रस्थ और सन्यास जीवन को समाज सेवा में झोंक दिया क्योंकि उसके लिए समाज ही देश का प्रतिरूप है। समाज की उन्नति से ही देश की उन्नति होगी, यह उसका अडिग विश्वास ही उसकी प्रेरणा है। अब चाहे कोई उसको कहे कुछ और तो उसका क्या।
15 अगस्त 2019, आज ग्यारह साल और ग्यारह महीने हो गए सागर को अपने गांव से निकले हुए। कल बड़े शहर जाना पड़ेगा करीब 12 साल बाद। बेटे का फोन आया था, उसकी मां, यानी सागर की पत्नी को लकवा मार गया और वो हस्पताल में है। डाक्टर ने बोल दिया की उनके करने का कुछ नही है, और बेटे ने बाप को बोल दिया "आप मां को ले जाओ या फिर यहां आ जाओ उनकी देखभाल करने, मैं या आपकी बहू ज्यादा दिन नौकरी छोड़ कर नहीं बैठ सकते।" और सागर संतुष्ट भी है, 15 साल अपने गांव से दूर रहने के बाद 12 साल वो अपने गांव से अगर कहीं गया तो सामान खरीदने गोरखपुर तक। बस, और कहीं नहीं।
23 वर्ष की आयु में लिपिक के रूप में उसने मंत्रालय में योगदान किया। 31 अगस्त 2007 को 37 वर्ष की नौकरी के बाद अवर सचिव के पद पर सेवा निवृत्ति एक अच्छे नौकरी जीवन का उद्घोषक करता।
सलाहकार के रूप में पुनर्रोजगार का अवसर था पर सागर को स्वीकार नहीं था। एक तो सीमेंट और ईंट के जंगल में थक गया था और गांव में रहना चाहता था। दूसरे बेटा, बेटी, बहु और दामाद चारो नौकरी में थे। पत्नी शहरी मिजाज की थी और पिछले दस पंद्रह वर्षों में गांव नही जाना हुआ था उसकी जिद के कारण। सेवा निवृत से एक वर्ष पहले से चर्चाओं में मोटे तौर पर फैसला हो चुका था कि सागर की पत्नी अपने बेटे के साथ रहेगी और सागर गांव जाएंगे।
सो सागर 15 सितंबर को अपने गांव पहुंच गए। दिल्ली से ट्रेन से गोरखपुर। वहां से पहले एक बस, फिर दूसरी, फिर अन्य साधन कर सागर "सागर दिन्ही" के पास गांव पहुंचा। गंडक नदी गांव के पास ही, पार करो तो उत्तर प्रदेश से बिहार, और थोड़ा उत्तर की तरफ पैदल ही चल दें तो नेपाल।
पहुंच कर दस दिन के भीतर अपना टूटा फूटा सा मकान ठीक करवाया, मतलब टीन की छत डाली और वहीं संसार बसा लिया। तब तक उसी मकान में ही रहे, लेकिन रहना आसान नहीं था। व्यक्तिगत जरूरतों की सूची लंबी नहीं थी। खाना बना लेते थे। लाइब्रेरी साथ लेकर चले थे सो पढ़ने का सामान बहुत था। उसी मकान में एक आश्रित परिवार था, उसको एक कमरा दे दिया। 15 वर्ष पहले हरी राम को रहने को दिया था। 2007 में हरिराम तो था नहीं, उसकी पत्नी कमला, 22 की विधवा बहू रीना और 4 साल की पोती थी। हरी राम और उसका बेटा दोनो कुछ महीने पहले दुर्घटना में चले गए थे।
गांव जंगल से दूर नहीं था। कुछ के पास जमीन थी, वो खेती करते या करवाते थे और जिनके डंगर भी थे तो वो धनी वर्ग में आते थे। दूसरा मजदूर वर्ग था जो कभी कभी दूरों के खेतों में अनाज के बदले काम कर लेता। कभी जंगल में जा कर लकड़ी लाना, शहद लाना, कुछ और बेचने लायक मिल जाय तो ले आना ही उनका काम था। बिन मांगे पुरस्कार में मौत थी, चाहे सांप के कटने से या नदी पार करते हुए किसी दुर्घटना से। 50 वर्षों में गांव जस का तस था।
1947 में जन्म, सागर ने गुलामी के दिन या स्वतंत्रता की लड़ाई तो नही देखी लेकिन आजादी का जज्बा और उत्साह, उसकी चुनौतियां, सब देखी था। तब 15 अगस्त और 26 जनवरी को त्योहार के रूप में देखा जाता था, सब गर्व करते थे। भाषण और परेड सुने जाते। 1980 के बाद वो उत्साह ठंडा पड़ गया था पर दिल के कोने में देश के लिए कुछ करने की सुप्त लालसा जाग गई।
"अगर इन लोगो में से केवल कुछ को भी मैं इस विषैले चक्र से बाहर निकाल सका तो वो मेरी उपलब्धि होगी।"
जैसी सोच, वैसा काम।
अगली सुबह सागर ने बस पकड़ी और गोरखपुर को निकल गया। किताबों की दुकान से पहली से लेकर आठवीं तक की सभी किताबें और दर्जनों के हिसाब से कापियां, पेंसिलें इत्यादि खरीदकर रात तक घर पहुंच गया।
अगली सुबह :
"कमला, अब से तुम और तुम्हारी बहु बाहर किसी के पास कोई काम नहीं करोगी। दोनो की कितनी कमाई होती है बताओ।"
कमला बोली "बाबू जी, हम दोनो मिलकर माह में दो हजार कमा लेते है। उससे दिन का चावल बना लेते हैं। अंगीठी की लकड़ी तो जंगल मैदान से उठा लेते हैं। बस और कुछ नही।"
"आज से तुम दोनो किसी दूसरे का काम नही करोगे। मैं तुम्हारे खाने कपड़े का पूरा इंतजाम करूंगा। मेरा खाना बनाओ और साथ ही, अपने दोनो और बच्चे, तीनों का खाना भी बनाओ और साथ ही खाओगे। खाना हम चारों का एकसाथ बनेगा।"
मालिक, वो भी जिंदगी शहर में बीता कर आए हुए, और इनसे यह सुनके कि सब का खाना एक साथ बनेगा, कमला और रीमा को विश्वास नहीं हो रहा था ।
"पर बाबू जी, हम तो नीच जात है, हम आपके वाला खाना कैसे खा सकते है।"
""जब तुम मेरे लिए खाना बना सकते हो तो वही खाना खा भी सकते हो। और मैं जब तुम्हारे हाथ का बना खाना खा सकता हूं तो हम सब की जात एक ही हो गई। जात की बात मुझसे न करना क्योंकि मैं नही मानता।"
"और सुनो, तुम्हारी बस्ती में बहुत सारे बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जाते। सब को पढ़ने के लिए कहना मुश्किल होगा। लेकिन कमला, तुम्हारा काम है जो घरों के बड़े लोग हैं उनसे बात करके कम से कम 10 बच्चे यहां पर रोज लाने की तैयारी करो। मैने गोरखपुर से किताबें मंगवाई हैं। रीमा को मैं पढ़ाऊंगा और साथ ही उसकी बच्ची को भी। उसका नाम अब से सरस्वती रखना।"
कमला की आंखों में खुशी, आश्चर्य और डर, सब एक साथ छा गए। "बाबूजी, गांव में तो कोई बहु को ना पड़ने देगा, अगर आप से पड़ लेती है तो शायद अच्छा हो। पर गांव में कोई झमेला ना हो।"
"मुझे नहीं लगता गांव में कोई मुझसे कुछ बोलने आयेगा। और हां, मैने पड़ोस के स्कूल में बात कर ली है । मेरे पास जो बच्चे आयेंगे उनको उनके उमर के अनुसार स्कूल में दाखिला करवा दूंगा। एक बार स्कूल में जाए तो दोपहर का खाना, कपड़े और किताब कापियां सब मिल जायेंगी।"
"यह तो बहुत अच्छा होगा बाबू जी। हमारे बस्ती से तो बच्चे स्कूल पहुंच ही नहीं पाते। मां बाप को या तो समय नहीं होता, या फिर एक ही जिंदा रहता है। बच्चे तो बस पैदा होते हैं, और मजदूर तो सात आठ साल में ही बन जाते है। जितने मजदूर होते हैं घर में उतनी कमाई होती है चाहे नाम की हो। कुछ जान लेंगे तो गांव के बाहर भी कमाएंगे।"
और अगले दिन सवेरे सागर ने चार साल की बच्ची और 22 साल की उसकी मां को अपने पास बिठा लिया। रीमा कुछ पढ़ी हुई थी सो एक हफ्ते के अंदर वो सीधी छठी की किताब बांचने लग गई। सरो यानी सरस्वती को अक्षर परिचय शुरू किया। साथ ही चार बच्चे और मिल गए जो 6 या 7 साल तक थे और अक्षर ज्ञान किसी को नहीं था। सागर की कक्षा अच्छी चल पड़ी थी। एक हफ्ते में चार बच्चे मिले तो सागर की आशा बंध गई।
रीमा को सागर ने हाथ पकड़ कर बच्चों को पढ़ाना सीखा दिया। अब हिंदी का अक्षर परिचय, साधारण पहाड़े और जमा घटा के सवाल, गिनती, ये सब दो महीने के अंदर रीमा के काम बन गए । सागर ने रीमा को सीधा दसवीं की प्राइवेट परीक्षा दिलवाने का मन बना लिया। रीमा को देख देख दो और लड़कियां आ गई। दो लड़कों ने भी आना शुरू किया। पढ़ाई का जमावड़ा देख कुछ तत्व नाखुश भी थे पर उनके तर्कों से सागर बाज आने वाले तो ना थे।
साल भर में छह सात साल तक के सारे बच्चे हिंदी और कुछ हद तक गणित सीख गए थे। करीब दस छोटे बच्चे और छह 14 से 15 साल तक के विद्यार्थी मिल गए। इनके साथ ही रीमा और सरस्वती भी थी। स्कूल के अध्यक्ष ने साल के बीच सागर के कदमों की प्रशंसा करी थी और चार पांच बार आ चुके थे सब देखने। उन बच्चों को 2008 में स्कूल में कक्षा 1 और 2 में दाखला मिल गया। कुछ पड़ते रहे, नए बच्चे आते रहे कुछ स्कूल जाते रहे, कुछ पूरी तरह छोड़ गए। सागर लगे रहे पूरे मन से।
2010 तक रीमा और उसके साथ दो और लड़कियां और चार लड़के 10 वीं कर गए। सागर ने रीमा के साथ एक और लड़की को दूसरे बच्चों को पढ़ाने का काम दे दिया और अपनी जेब से उनको दो दो हजार हर महीने देते। बाकी तीन लड़कियों को आंगनवाड़ी में लगवा दिया। लड़कों को उत्साह जगाया की काम कुछ करो तो वो भी कुछ न कुछ करने लगे। 2014 तक सागर ने सिर्फ छोटे बच्चे ही लिए अपने घर पर पढ़ने के लिए। सिर्फ यह सात थे जो बड़े थे। 2019 तक सब को ग्रेजुएट बना दिया था और सात में से चार बैंकों में नौकरी कर रहे थे।
इन सातों का पीछा सागर ने नहीं छोड़ा था। उसका उद्देश्य था कि एक तरफ तो एकदम छोटे बच्चों को स्कूल जाने की और पड़ने की आदत डलवा कर ही दम लेंगे, दूसरी तरफ इन सातों को नई जिंदगी की राह दिखाने ताकि यह गांव में उदाहरण बने रहे और जब सागर को कूच करना पड़े तो फौज तैयार रहे।
आज गांव में 15 अगस्त मनाया जाना था। 11 सालों से हर साल सागर 15 अगस्त और 26 जनवरी मना रहे हैं। अपने बच्चों और उनके माता पिता को बुलाकर राष्ट्रीय गान गाया जाता, लड्डू बांटे जाते और देश और स्वाधीनता आंदोलन के बारे में कुछ बाते होती। आज सागर ने सातों को बुलाया था।
आज सागर ने लड्डू बांटने के बाद अपने उन सातों बच्चों को बुलाया, साथ में सरस्वती और कमला। इतने दिनो में कमला भी हिंदी अच्छी लिख पड़ लेती और सागर ने उसको और रीमा को आमदनी और खर्चे का हिसाब रखना सीखा दिया था।
सागर ने कहा, "देखो, मैं 1947 में पैदा हुआ और देश के लिए कुछ करना चाहता था। देश, समाज, गांव, कहीं भी अगर कुछ किया जा सके तो उसीको देश सेवा मान लेना चाहिए। मैं इस गांव के लिए कुछ करना चाहता था, वो मैंने किया। अब आगे तुम लोगो को करना है। मैने एक संस्था बनाने का निश्चय किया है जिसको मैं यह मकान और मेरे सारे बचत के पैसे दे जाऊंगा। जब तक जिंदा हूं, यही रहूंगा, पर आज से सारा बंदोबस्त तुम लोगो को देखना है। मेरा पेंशन का आधा मेरा रहेगा, बाकी संस्था का। मैंने जिसको जो भी काम सिखाया है वो सब करते रहे और नया नया काम सीखते रहे। कुछ ऐसा करो की इस गांव में कोई अनपढ़ न रहे। बस यही मेरी इस गांव के प्रति जिम्मेदारी है, और यही तुम लोगो की देश सेवा होगी।"
उन्होंने आश्वासन दिया की वो गांव छोड़ कर नहीं जायेंगे, और सागर ने अपना कहा रखा।
बेटे के कहर अनुसार पत्नी को लेने गए और सबके विरोध के बावजूद उसको अपने साथ लिवा लाए। डाक्टर ने कह दिया था की ज्यादा कुछ दिन बचे नहीं थे। डाक्टर की बात सच थी। गांव लाने के बाद दो महीने में पत्नी गुजर गई। शुरू में जो नाराजगी थी बड़े शहर से गांव में आने की, उसकी जगह उनकी पत्नी को कुछ दिनों के अंदर ही अफसोस होने लगा था कि गांव की जिंदगी के प्रति उनकी अपनी ही बेरुखी ने उनको इस प्यार और सम्मान भरे मासूम माहौल से दूर रखा।
सागर ने कहे अनुसार अपना मकान और संचित धन गांव की संस्था के नाम कर दिया था।
आठ महीने बाद, उनका शरीर गांव में उनके घर पर रह गया और आत्मा सब को सोता हुआ छोड़ कर कहीं खो गई।
उस गांव भक्त, देश भक्त पर पूरा गांव रोया। सरस्वती, रीमा और कमला को लगा वो फिर अनाथ हो गई, लेकिन अब वो समर्थ थी, अब वो दूसरों को हाथ पकड़ कर सिखा रही थी, वैसे ही तैयार कर रही थी जैसा उनको एक दिन सागर ने किया था।
सागर की समाधि पर गांव वालों ने लिखा,
" एक देश भक्त जिसने यह गांव बदल दिया"

Very well written and thought provoking story. The journey of protagonist Sagar is very compelling.
ReplyDeleteGood choice of words for knitting the story in a flowing manner. We should transform our villages but the State Governments have to be pro-active without succumbing to the politics. Persons like Sagar can play role model to achieve much required transformation of villages; in particular remote ones. Store is a must read.
ReplyDeleteVery beautifully written
ReplyDeleteA very beautiful narrative and flow of the story is so good, completed in one go. Journey of Sagar is inspiring and people may learn from his journey
ReplyDeleteGood inspiring story ! Written very well.
ReplyDeleteVERY VERY NICE JOB DONE.
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