इंतजार सदियों का

 


इंतजार, करने वाले को कुछ इंतजार के बाद लगता है की इंतजार की इंतहा हो गई, और वो अपना लक्ष्य, अपनी आशाएं बदल लेता है।  और कुछ, इंतजार करते हुए सदियां बिता देते है, पूरी को पूरी जिंदगी बीत जाती है लेकिन इंतजार आखिर पंचतत्व के साथ मिल कर ही खतम होती है।

अक्सर लगता था इंतजार बहुत हुआ, अब वो नही आयेगा। फिर भी दिल नहीं मानता था, जगा हुआ दिमाग मुझे समझता रहता, और समझाता भी। कहता,  छोड़ इंतजार छोरी, अपने रास्ते पर आगे बढ़ती जा। नई नई मंजिलें पलके बिछाएं रह तकती, ना कर इंतजार अतीत का।

दिल, यह दिल माने तब तो आगे बड़ा जाय।

छोटे छोटे थे भाई, जब उनका हाथ पकड़ कर लिखना सिखाया। जब वो निराश होते, मेरे ही पास आते, सलाह भी, दिलासा भी। दीदी, दीदी, बस दीदी में ही उनका पूरा संसार समाया। आज भी याद है, जब एक रिश्तेदार ने भाइयों के सामने कहा, तू भाइयों के लिए अपनी जिंदगी दे रही है, शादी के बाद ये तुझे छोड़ देंगे तो क्या करेगी। अच्छा होगा कोई साथ ढूंढ ले।

भाई नाराज हो गया, उसी चाची के सामने अपनी कापी उठा लाया और एक खाली पन्ने पर बड़ा बड़ा लिखा, " मैं कभी शादी नही करूंगा और अगर शादी करी तो दीदी को पचास रुपए जुर्माना दूंगा।"

उसके बचपने पर वो चाची और मैं दोनों हंस दिए। खैर, पचास रुपए भी बहुत थे उन दिनों।

समय आने पर उसकी शादी हो गई। स्वाधीनता की ललक उसके मन में बहुत दिनों से थी। मैंने कभी किसी को रोका नहीं, लेकिन फिर भी केवल मेरे बड़े होने का अहसास ही उसको और उसकी पत्नी को खाए जाता। और उनका रास्ता अलग हो गया। पचास रुपए की बात किसी को याद नहीं आई।

"दीदी, हम लड़कों की शादी करने में यह खतरा है, इसलिए मैं शादी नही करूंगा", बड़े भाई के जाने के बाद छोटे ने कहा। मैंने उसको समझाया, "नही, हर कोई एक नही होता। पांच उंगलियां भी एक जैसी नहीं होती।"

समय बीतता गया, मैं तो शादी की उम्र और मानसिकता दोनो पार कर चुकी थी। सबसे छोटा भाई मेरे साथ बहुत चिपका था। बी टेक था, नौकरी भी ठीक थी। सारे रिश्तेदार दोस्त पीछे पड़े थे, शादी, शादी। वो राजी नहीं होता। मुझे लगने लगा की शायद मैं अपने स्वार्थ में कहीं उसको दुनिया से अलग तो नही कर रही। उसके दोस्त और सहपाठियों के बच्चे स्कूलों में जा रहे थे। उनसे उसका मिलना कम हो रहा था। कुछ महीनों में 35 का होने वाला था। मुझे लगा अगर मैने कदम नहीं उठाया तो ये भी शादी नही करेगा। और मैने कदम उठाया। हर तरफ से जोर करने पर वो राजी हुआ, शर्त सिर्फ इतनी थी कि लड़की किसी संयुक्त परिवार में बड़ी होनी चाहिए। और दहेज नहीं मांगा जाएगा।

दोनो बातों को मानते हुए शादी हुई। जब पहले दिन लड़की के पिता और भाई आए, उसने खुला वक्तव्य रखा, "अगर आपकी बेटी को कोई भी शक हो की वो मेरी दीदी के साथ रह पाएगी या नहीं तो कृपया आगे बात मत बढ़ाइए। अगर उसने शादी के दस साल बाद भी अलग होने का सोचा तो मैं नहीं मानूंगा। उससे अच्छा तो मैं तलाक देना चाहूंगा।" शायद उसकी ये विचारों की सादगी देख उन्हें लगा होगा की ये बेवकूफ है, पता नही।

आज भी वो दिन याद आते है, कितनी खुशियां भरी थी, मेरे भाई की पत्नी चहकती घूमती, दीदी दीदी करती, भाई भी खुश था। कुछ साल, सिर्फ गिनती के कुछ साल। और धीरे धीरे उनकी आपस की खटपट कमरे से बाहर निकलने लगी।

दिल दहल गया जिस दिन कमरे से आवाज आई, "शादी के इतने साल हो गए अभी भी दीदी से इतना प्यार! ये सिर्फ भाई बहन का रिश्ता है या कुछ और।" भाई का जवाब सिर्फ इतना था, "तुम्हारे दिमाग का इलाज करवाओ।"

भाई को बोला, "तू अलग हो जा, शायद तेरी बीवी खुश रहेगी। आज कल कोई नही चाहती साथ रहना।" वो नही माना।

भाई की मुस्कुराहट गायब हो चुकी थी। अक्सर ऑफिस से आते हुए बस से उतर कर पार्क में बैठ जाता। एक दिन मैंने बाजार से आते हुए देख लिया तो पता चला। कहता," घर काट खाने को दौड़ता है। लगता है जैसे डायन बैठी है।" मैं स्त्री होकर उसको समर्थन तो नही कर सकी, हल्का सा विरोध किया, उसको साथ लेकर आ गई।

इसी बीच एक दिन खाना खाने पर किसी बात में कहा सुनी हुई और उसकी पत्नी ने अपने बच्चों को अपने से लिपटाय बहुत ही भद्दे तरीके से बोला, " मैं और मेरे बच्चे आज से तुम्हारी दीदी की हाथ का बना हुआ नही खाएंगे।

और घर में दो रसोई। भाई अक्सर बिना कुछ खाए निकल जाता। पत्नी की अलग रसोई में खाने से उसका दिल जलता, और मेरे हाथ का खाने से पत्नी की बदतमीजी सहनी, इन दोनो के बीच वो बाहर खाने लगा, और अक्सर भूखा।

कुछ महीनो में मकान बेच कर अलग अलग फ्लैट, भाई और उसकी पत्नी अलग फ्लैट में, मैं खुद के साथ अलग। कमाई मेरी काफी थी, अपने को समेटने की आदत भी थी।

लेकिन भाई, आज पांच साल हो गए, उसको देखा नही। सिर्फ इंतजार है। घर अलग ही गए, लेकिन भाई और उसकी पत्नी के रिश्ते बिगड़ते ही चले गए। कभी वो बाहर जाने के नाम पर सारी रात रेलवे स्टेशन पर बिता देता। सिर्फ सुबह मेरे फ्लैट पर आकर नहा कर निकल जाता।

एक दिन पता चला उसकी नौकरी चली गई क्योंकि काम करने की मानसिकता नहीं ला पा रहा था। कुछ दिन और। कुछ और झगड़े। एक दिन आया, वकील करने, केस करने जा रहा हूं, तलाक चाहिए। पूछने पर मोबाइल पर मैसेज दिखाया, "मेरी बहन के हर आंसू की बूंद के लिए तुम और तुम्हारे परिवार को खून से कीमत चुकानी पड़ेगी।"

मैने उसे शांत किया, तलाक से बच्चों का भविष्य खराब होता है।

अगले एक महीने में उसको सड़क पर दो बार कुछ लोगो से हाथापाई हो गई। धमकी भरा मेसेज दिमाग में खलबली मचाने लगा।

और एक दिन अचानक वो एक बक्से में अपना जो सामान मेरे पास था भर कर चला गया। आंखो में आंसू नहीं, आग थी। बोला, "दीदी, जा रहा हु बहुत दूर। शायद कभी न आने के लिए। मरूंगा नहीं, बच्चो को पैसे भेजने है हर महीने, आखिर पैसों की मशीन हूं। लेकिन जिंदगी में किसी को शादी करने की सलाह नहीं दूंगा। और न आप देना।"

पांच साल, लगता है सदियों का इंतजार। फिर अपने शहर में वापस न आया। पत्नी को खर्चा दे रहा था, कभी कभी मुझे भी उसने पैसे भेजे। फोन पर बात होती, मैं मना करती, लेकिन वो भेजता।

पर उसको देखे हुए तो सदियां बीत गई। आधुनिकता की जिद से तंग आकर उसने खुद को निर्वासित कर लिया, पत्नी को अधिकार मिल गया यद्यपि पति नहीं मिल पाया। मुझे मिला इंतजार, सदियों का। भाई को? उसने तो शायद इंतजार भी छोड़ दिया। या फिर इंतजार, इस परिस्थिति के अंत का।

सदियों का इंतजार। बस एक आशा बची है, बहुत कुछ तो टूट गया, फिर भी जो कुछ बचा है, वो रहे। और एक बार ये इंतजार भी खतम हो। मेरा बेटा समान भाई वापस आ जाय।


4 comments:

  1. आंखों में आंसू आ गए। कुछ भूली बिसरी यादें ताजा हो गईं। बहुत सुंदर लिखा है।

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  2. Beautidully expressed story. There is complete flow and several threads are skillfully joined. It is human tendency to forget sacrifices made by others during the passage of time which is certainly regretful. In any adversity, we must weigh good olden days before taking some extreme step. Joint family with individual freedom is always beneficial.

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  3. दर्द भारी वास्तविकता जो कई परिवारों और इंसानों को तोड़ चुकी है। लेखक को धन्यवाद इस भावना को लेखन में लाने के लिए।

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