भक्ति और राजनीति


 भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है।


भक्ति नि:संदेह प्रेमरूपा है। किंतु हर प्रकार का और हर किसी से किया गया प्रेम भक्ति नहीं है। 


हां, मातृभक्ति, पितृभक्ति, देशभक्ति और ईशभक्ति का प्रयोग हम करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसमें प्रेम के साथ श्रद्धा जुड़ी हुई है उसे भक्ति कहते हैं। किसी बड़े, आदरणीय, पूज्य, श्रद्धेय के प्रति ही भक्ति होती है। प्रेम हम वहां करते हैं जहां से हमें आनंद मिलता है-चाहे वह व्यक्ति हो या वस्तु।


भक्ति शब्द का केवल दुरुपयोग ही नहीं, इसका वक्रात्मक उपयोग का एक चलन बन चुका है । 

राजनीति हमेशा से नेता के प्रति निशब्द प्रश्नहीन समर्पण मांगती है। किसी सिद्धांतिक वाम पंथी के सामने आप लेनिन और मार्क्स को लेकर बहस नहीं कर सकते, प्रश्न नहीं उठा सकते, केवल श्रोता ही बन सकते है। उत्तर कोरिया, चीन, सऊदी अरब और अन्य कई देशों में प्रश्न नहीं किए जाते, तो क्या यह समर्पण भक्ति और प्रेम है, या केवल भय? 


आज जब भारत के कुछ राज्यों जिनमे बंगाल प्रमुख है पीछे कुछ दशकों से एक ही संस्कृति पनप रही है, आप हमारे साथ है या फिर आप  कहीं रहने योग्य नहीं है, इस नीति के प्रति समर्पण भक्ति है या भय?


भारतीय कांग्रेस हमेशा में एक ही नीति का प्रचलन है, आप राजा के मातहत हैं, या फिर आप कही नहीं है। सिर्फ एक परिवार के प्रति समर्पण भक्ति है या भय?


नेता को हां कहना मजबूरी है, नेता चाहे कट्टर वाम पंथी हो, या कांग्रेस, या समाजवादी, उत्तर से मायावती हो या दक्षिण से जयललिता, तेलंगाना हो या कश्मीर। नेता गिरी वंशवाद का उत्तराधिकार बन के रह गया है।


एक ऐसी अवस्था में एक पार्टी, भारतीय जनता पार्टी का अचानक सबसे बड़ी और प्रभावशाली बन जाना दूसरों की असहिष्णुता जनित पीड़ा को कुरेद कुरेद कर नासूर बना रहा है।


इस परिप्रेक्ष्य में इस पार्टी के पक्ष में जाते किसी भी तर्क को काटने के लिए एक भद्दा तरीका अपनाया गया। भक्ति और भक्त जैसे पावन शब्दों को वक्र रूप में प्रयोग किया जाने लगा।


उनका मानना है कि जिसको वो पसंद नही करते उसको घृणा करने का अधिकार है, लेकिन यह उनके विरुद्ध भी जाता है क्योंकि अगर मैं किसी के तर्कों को सुनने की मानसिकता नही रखता तो वो भी मेरे तर्कों को सुनने की मानसिकता नही रखेगा।

तो आइए, तर्कों को तर्कों से ही काटे, घृणा युक्त वक्रयुक्तिओं से नहीं।



3 comments:

  1. बहुत ही सुंदर और तर्क संगत लेख है।

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  2. राजनीति ने भक्ति और भक्त को इतना विकृत कर दिया है, कि भक्ति से ही विश्वास उठ जा रहा है। बहुत सही विवरण है

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