त्याग पत्र और जवाब

त्याग पत्र और जवाब 

त्याग पत्र

१५ मई २०१६  

Image result for photo of girl writing a letter in dark roomमैंने आज अपनी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया।  हाँ, मैं अपने काम से बहुत प्यार करती थी, और मैंने उसी से त्याग पत्र दे दिया।  मैं बहुत कुछ लिखना चाहती थी, पर कुछ न लिख पाई।  सिर्फ एक वाक्य, 

"महोदय, 

मैं आज से ही अपने कार्य से त्याग पत्र देना चाहती हूँ।  कृपया स्वीकार करें।  
धन्यवाद, 
भवदीया 
राशि  "

दफ्तर में बैठ कर मैं इससे ज़्यादा लिख भी नहीं पा रही थी, और ना  ही दफ्तर की प्रथा मुझे कुछ और लिखने की इज़ाज़त देती थी।  लेकिन, इस वक्त, अपने घर पर, जब सब सो चुके है, मैं अपनी तन्हाई में आज़ाद हूँ लिखने को, जो मेरा मन, मेरा दिल चाहता था, चाहता है, और मैं लिखूंगी। 

मेरा मन चाहता था कि  मैं लिखू, मेरे पापा , या फिर आदरणीय पापा जी, लेकिन दफ्तर में तो यह लिखना संभव नहीं था।  यह एक औपचारिक पत्र था और  दफ्तर की औपचारिकता के भंवर में रिश्तो का कोई मूल्याङ्कन नहीं होता।  और मेरा और पापा का रिश्ता तो एक पवित्र, ऐश्वरीक रिश्ता है, लेकिन इसकी सामाजिक मान्यता शायद नहीं है।  या फिर मुझे बोलना चाहिए की इसकी मान्यता हम दोनों और हमारे कुछ करीबी रिश्तों में तो है, लेकिन दस्तावजों की औपचारिकता में तो शायद इस पवित्र रिश्ते को भी मान्यता न मिले।

और इस पर दफ्तर?

दफ्तर तो एक सख्त,  नीरस और सभी मानवीय संवेदनाओं  से परे एक स्थान है।  और ऐसा ही कुछ मुझे सिखाया गया है। और साथ ही, वो मेरे मालिक, मेरे गुरु, मेरे सीनियर थे, हैं  और सर्वदा रहेंगे।  लेकिन उस मालिक और नौकर, या फिर वरिष्ठ और कनिष्ट कर्मचारी के रिश्तो के ऊपर एक और रिश्ता, वो मेरे पापा और मैं उनकी बेटी, और ये रिश्ता तो शाश्वत हो गया।

वो मेरे जन्मदाता नहीं है, लेकिन मेरे दिल दिमाग में वो मेरे पापा ही है।  मैंने कुछ दिन पहले ही अपने जन्मदाता बाबूजी को खोया था, और उनके जाने से मेरी दुनिया बिखर गयी थी।  ईश्वर ने मेरे  पापा को दुबारा भेज दिया।  मैं जानती हूँ शायद कई लोग हमारे इस मानसिक रिश्ते की पवित्रता को न समझे, लेकिन उससे मुझे क्या अंतर पड़ता है ? मैं तो अपने पापा को यह चिट्ठी लिख रही हूँ, सिर्फ उनके लिए। पता नहीं  ये चिट्ठी उन तक भी शायद न पहुंचे, लेकिन वो तो मेरे इतने करीब है कि  लगता है कि  मेरे पीछे खड़े  हो कर पड़  रहे है।  

मेरे प्यारे पापा, 

मैं आपको अकेले में तो सिर्फ पापा ही बुलाती हूँ, और इस चिठ्ठी में तो आप मेरे पापा ही हैं, सिर्फ पापा, न बॉस , न वरिष्ठ अधिकारी, न मालिक, सिर्फ पापा, पापा जी 

इस वक्त मेरी याददाश्त मुझे कुछ साल पहले के दिनों में खींच कर ले जा रही है।  मुझे एक काम की बुरी तरह तलाश थी।  उन दिनों मैं बेकार थी।  पारिवारिक अवस्था कभी भी उतनी अच्छी नहीं रही थी लेकिन उन दिनों कुछ ज़्यादा ही ख़राब थी।  ज़िन्दगी में ऐशोआराम की चीज़ो  की कभी परवाह नहीं करी  क्योंकि कभी वो हमारे पास देखी नहीं।  हमारा सबसे बड़ा  ऐश था माँ और बाबूजी का प्यार, उनकी गोद  और अंचल की छाँव।  

पड़ोसिओं  से कोई प्रतियोगिता नहीं थी।  हम जो थे, खुश थे।  कभी भूखे  पेट सोये नहीं , हाँ माँ और बाबूजी ज़रूर सोये होंगे।  कपड़े पहनने को हमेशा मिले थे, धूप  और वर्षा से बचने को छत थी,  तूफान और ठंडी हवाओं से बचने  दीवारे भी थी।  दीवारों के अंदर मुस्कुराहटें  थी, और ख़ुशी की परिभाषा भी वही थी। 

याद आती है, कक्षा ६ मैं जब थी, अक्सर मैं और मेरी बहन स्कूल  से आने के बाद पड़ोस के खेतों में चले जाते थे। उनमे कभी सब्जियाँ  तोड़ते, कभी  जंगली घास साफ़ करते।  हमारे पास अपने कुछ औजार थे और मैं और मेरी बहन  कुछ ना कुछ उनदिनों कमाते थे।  वो पड़ोसी  अमीर  थे।  अमीर  क्योंकि उनके पास अपनी ज़मीन  थी, कुछ के पास टेलीविज़न था, गैस का चूल्हा वो रोज़  या फिर हर दूसरे दिन जलाते थे।  हमारे घर में रेडियो था  और गैस का चूल्हा ४/५ दिन में एक बार जलता था, सिवाय की बहुत बारिश न हो रही हो ।  सिर्फ इतना ही अंतर था। उनसे जो भी कमाई मिलती, वो माँ को देते थे।  कभी पूछने की ज़रूरत नहीं समझी कि माँ ने क्या किया, लेकिन अक्सर जब भी हमें  वो वाले पैसे मिलते तो  में उबला अण्डा  या फिर मुर्गी की टांग खाने को मिल जाती।

उस जीवन से कोई शिकायत नहीं थी, हमारा पेट भर  जाए , हम ख़ुशी मनाते  थे।  हम कम्बल में एक साथ बैठते और सोते थे।  इसी बीच  में अपनी हालत का एहसास कुछ संजीदगी से हुआ जब पता चला कि  दसवीं कक्षा की परीक्षा शायद  पाऊं।  लेकिन मेरे एक शिक्षक त्राता बन कर उभरे और उन्होंने आर्थिक मदद की और  परीक्षा दी।  कुछ समय बाद उनको मैंने वो रकम लौटा भी दी थी।

उस परीक्षा के बाद मुझे अपने माँ बाप के सुरक्षा छत्र  से   निकल कर नौकरी की तलाश करनी पड़ी।  एक नौकरी, दूसरी, तीसरी ......  एक गरीब घर की लड़की, पढ़ाई  में अच्छी होने के कारण  नौकरी मिलना मुश्किल नहीं था, लेकिन नौकरी चालू रखना आसान नहीं था।  मुझे समझ आ गया था की गरीब लड़की की जीवन गाथा आसान या फिर सुरक्षित केवल माँ-बाप के पास थी, बाहर तो लड़ना था, हर दिन, हर पल, हर क्षण।

इसी बीच में शादी हो गयी। सोचा की जैसे पिता जी पुरे परिवार को सुरक्षा देते थे, मेरा ससुराल भी वैसा ही होगा।  मैं ग़लत थी।  मेरी सुरक्षाहीनता लेकिन बढ़ती ही चली गयी, और सीमा क्या होती है कभी न तो सोचा और न कभी मालूम चला। असुरक्षा एक दुर्बलता थी, परिणाम था अत्याचार, जिसको मैं सहती  गयी,तब तक, जब तक कि विकल्प केवल जीवन या फिर मृत्यु तक आकर थम ना गया।

और, मैं उस मृत्यु से दूर भागने को रोज़ नई चुनौतिओं से लड़ने लगी। तूफानों के बीच  नन्हा सा दिया, अपनी अस्थिर लौ को झंझावातों के प्रहारों में जीवित रखा। लौ फड़कती  रही, मैं भी ज़िंदा रही।  और इसी लड़ाई को केवल आगे ले जाने के लिए विवश किया, मेरे शरीर से निकले दो नन्हें प्राणो ने।  उनका एक बाप था, कहने को मेरा पति, जिसके लिए मैं पत्नी कम थी, काम वाली बाई और बिना पैसे की बाजार वाली बाई, दोनों ही थी। उसने मेरी आत्माभिमान को स्थापित करने की कोशिश के विरोध में मुझे तलाक दे दिया, और मैं स्वाधीन थी उससे, पराधीन थी ज़रूरतों की।

रोज़ की तलाश, रोज़ की  नौकरी, अपनी अस्मिता को बचाए रखते हुए , नौकरी करते और छोड़ते हुए पहुँची  एक और दफ्तर, जहाँ के सर्वेसर्वा थे आप।  मेरी एक सहेली ने था, राशि, यहाँ पर आ जा, डरने वाली बात यहाँ नहीं है, आ जा।

मेरे वरिष्ठ आपके पास जाते और मुझे काम देते, लेकिन पहली बार लगा किसी दफ्तर में डर से ज्यादा इज्जत थी बॉस  के लिए।  एक दिन मैं दफ्तर नहीं आ सकी क्योंकि तलाक सम्पूर्ण हुआ था और कोर्ट के आदेश अनुसार मैंने अपना स्त्रीधन उसके घर से लेने की कोशिश करी।  और उसने अपने हाथों  का इस्तेमाल मुझे पीटने के लिए किया, और उन निशानों को लेकर मैं अपनी सन्तानो को लिपटा  कर सिर्फ रोती  रही।

बुरी तरह से पिटी  हुई, चेहरे पर निशान लेकर, डरी  हुई दफ्तर आई।  बिना सूचना के छुट्टी लेने के अपराध में आप के  सामने पेश की गयी। शायद मेरा डर और अंधकार को पहचान कर ही आपने  बोला, "डरो मत।  तुम यहाँ पर सुरक्षित हाथों  में  हो। "

मेरे लिए आपका यह एक वाक्य एक सुखद, खुशनुमा और आश्चर्यचकित करने वाला वाक्य  था।  मेरे पूरी तरह टूटी हुई ज़िन्दगी में वो कथन उस समय पर बहुत कुछ बेशक ना  लाया हो, लेकिन एक आशा की  किरण ज़रूर लाई थी।  और समय के साथ, कुछ जल्दी ही जब मेरे पिता जी हमे छोड़  कर दूसरी दुनिया में चले गए तो मुझे महसूस हुआ की दुनिया में एक और व्यक्ति है जो मुझे कभी इस्तेमाल नहीं करेगा, कभी नुकसान नहीं पहुचाएगा, और वो हैं आप, मेरे पापा।  पिता जी हमेशा मुझे मुस्कुराते देखना चाहते थे, शायद आप दूसरे व्यक्ति थे जिन्होंने मुझे कुछ ऐसा एहसास दिलाया।

मैं आपसे भी डरती  थी।  गलती पर आपने डांटा, और मैंने तो कई बार आपको सपने में देखा कि आप मुझे थप्पड़ मार रहे हैं, लेकिन वो सिर्फ सपना था।  आपको खोने का डर, पापा को  वापस खोने का डर, मैं भी एक इंसान हूँ, इस एहसास को खोने का डर मुझे हमेशा डराए रखता, ग़लती करना नहीं चाहती थी, पर करती । और शायद आपने पहचाना, मुझे सीधा अपने नीचे  काम करने को बुलाया।  आपके और मेरे बीच में अब तक जो पुराने कर्मचारी थे, अब वो नहीं रहे। आपने मुझे दीक्षा  दी, काम सिखाया, काबिल बनाया, आत्मसम्मान दिया, फिर भी मुझे हमेशा एक डर  सताता था, कही कोई ऐसी गलती ना  करू की आप मुझे नौकरी से ही निकाल दे।

Image result for photo of father and daughterइसी बीच में, पता नहीं कब, आपको मन में पापा सोचते सोचते शायद मैंने आपको अकेले में कभी पापा जी बुलाया था।  एक दिन, मैं आपको कुछ काम दिखा रही थी, और आपके कमरे में कोई और नहीं था।  मैंने आपको सर कह कर बुलाया, और आपने कहा, तुम मेरी बेटी हो, मुझे पापा जी बुलाओ।  वो  दिन मेरी ज़िन्दगी के बेहतरीन दिनों में से एक है पापा जी, मैं शायद सारी रात सो नहीं पायी।  इससे पहले कम से कम दो जगह अकेले में मेरे बॉस मुझसे रात का खाना या फिर कॉफी , यहाँ तक शराब का भी ऑफर कर चुके थे, पर आप तो मेरे पापा जी है, सड़क पर चलते पूँछ विहीन जानवर नहीं।

और, आज मैं नौकरी छोड़  रही हूँ।  मेरे पास कोई नहीं है जो आपके नाती-पोती की देखभाल करे , और मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए ताकि मैं उनको एक बेहतर जीवन दे सकूँ , उस डर  के बाहर जिसमे मैं डूबी हुई हूँ।  मुझे आपका मार्गनिर्देशन चाहिए, उनकी ज़िन्दगी सँभालने के लिए, उनको पढ़ाने  के लिए।  यह निश्चित है कि  मैं कुछ तो करुँगी, बच्चों  को आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए, क्या, अभी तो मैं भी नहीं जानती।

पापा, मैं  उदास हूँ, मैं आपकी नौकरी छोड़ रही हूँ।  आपसे एक चीज़ मांगती हूँ।  एक आशीर्वाद, कि  आपका एक कथन मैं हमेशा पूरा कर सकूँ , "उठो, खड़े  हो जाओ, आत्म  विश्वासी बनो, तुम जीतने के लिए पैदा हुई हो, जीत  लो जिंदगी को। "

पापा जी, मैं दफ्तर की नौकरी तो छोड़ रही हूँ, पर वचन देती हूँ हमेशा आपके निर्देशों का पालन करुँगी। और मैं आपसे मांग करती हूँ, वादा करो पापा, अपनी बेटी को कभी अपने मन से दूर नहीं करेंगे। कभी मुझे नहीं छोड़ोगे पापा, पापा जी, आप कहीं रहो, मैं कही रहूँ, पर इस नादान , कमज़ोर सी बेटी को कभी मत छोड़ना पापा जी।



आपकी,

राशि


जवाब 


१० जुलाई २०१६

स्नेहमयी  बेटी राशि,

जब तुमने औपचारिक त्याग पत्र दिया था आज से कुछ दिन पहले, तुम्हारी भावनाओ को मैं पड़  रहा था, उनका जवाब भी दे रहा था, पर वो सब अनकहा ही था।  तुम्हारी दूसरी चिठ्ठी मुझे पिछले हफ्ते मिली, और पिछले एक हफ्ते से कई बार पढ़  चुका हूँ। शायद तुम्हे मालूम ना हो की यह चिट्ठी अब मेरे पास है, यह मेरी धरोहर है अब, तुम्हारी याद, सम्मान, प्यार, और समर्पण की धरोहर।

जब तुमने औपचारिक चिठ्ठी दी तब तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आँखे, सब कुछ तुम्हारी भावनाओ के प्रति वफादार थे। और मैं तुम्हे निश्चिन्त करना चाहूंगा की उस दिन पापा और बेटी के बीच अनकहे संवादों में कोई दरार नहीं थी।

प्यारी बेटी, मैं हमेशा मानता  हूँ कि ईश्वर जब कभी कुछ इंसानो को सामाजिक बंधनों  मैं बांधना गलती से भूल जाता है तो उनको किसी न किसी परिस्थिति की रचना करके मिलाता  है।  मैं बहुत दूर से इस शहर में आया यह ईश्वर की ही रची हुई घटना थी।  उसने मुझे कुछ तूफानों  से दूर किया, उनसे मेरी रक्षा करने के लिए, और मुझे तुम्हारे शहर में भेज दिया, मेरी बेटी से मिलाने।

तुम्हारा साक्षात्कार याद है मुझे, डरा हुआ व्यक्तित्व, लेकिन फिर भी आत्म विश्वास लिए हुए।  सवालों का जवाब देते हुए पता चलता था की जो जानती हो वो बोलती हो, फालतू नहीं।

तुम काम करने लगी, सीखने लगी।  तुम्हारा काम सब को पसंद आया, और धीरे धीरे तुम सीधे मुझे ही रिपोर्ट करने लगी।  गलती और डाँट, सही काम और प्रशंसा, यह तो नौकरी के अंश है, और तुम्हे भी दोनों मिलते रहे।  हाँ, काफी बाद में मुझे पता चला कि  तुम सपने में देखती थी कि गलती करने पर मैं तुम्हे थप्पड़ मार रहा हूँ। उस दिन मैं काफी हंसा था, और  बहुत स्नेह भी आया था।

कोई भी एक ऐसा दिन या ऐसी घटना नहीं है जब हमारा पापा और बेटी का रिश्ता बना।  जब एक दिन मैंने कहा कि  कोई भी समस्या हो तो बेझिझक मुझे कह सकती हो, तुम मेरी बेटी जैसी हो, तब तुमने कहा, मैं बेटी जैसी नहीं हूँ, मैं आपकी बेटी हूँ।  मैंने तुम्हें  अपने दफ्तर में सुरक्षा का एहसास दिलाना चाहा, वो मेरा कर्त्तव्य था, और शायद उस सुरक्षा का एहसास तुम्हे इससे पहले किसी दफ्तर में नहीं मिला था। जब तुम मेरे पास आई,  बीमार, पिटी  हुई अवस्था में, मैंने कहा, यहाँ पर डरने की कोई बात नहीं है, यहाँ तुम सुरक्षित हाथों  में हो।

और उस दफ्तर में  पापा और बेटी का रिश्ता बनता चला गया, मजबूत, और मजबूत।

तुमने भी उस रिश्ते की परिभाषा निभाई, जब मेरे दोनों आँखों में ऑपरेशन होने पर तुम अपने घर ले जाने आई।  तुमने लगभग डांटते हुए मुझे कहा, पापा जी, आपके पास सारे  यन्त्र, सारा सामान है जो मेरे घर पर नहीं है।  लेकिन वहां मैं हूँ। और आपको और किसी चीज की ज़रूरत नहीं होगी यह मेरा वादा  है। और मैं निश्चिन्त था तुम्हारी बात से।

उससे भी पहले, तुमने मुझे कहा तुम्हारा कन्यादान करने को, जो मेरे लिए अकल्पनीय सौभाग्य था। दफ्तर में रहते हुए तुम्हें  एक और संसार, एक और जीवन साथी मिला। और मुझे तुम्हारा आभारी  होना चाहिए, तुम्हारे स्नेह और सम्मान के लिए जो तुमने मुझे दिया।

लिखते हुए आंखे नम  हो रही है, न जाने कितनी यादें भीड़ करके जमा हो रही है।  आँखे तब भी नम  थी जब तुमने नौकरी छोड़ी।  आज भी, जब यादें वापस आ रही है।

नहीं, मैं ग़लत लिख गया बेटी।  वापस तो वो आती  है जो कभी गयी हो।  तुम्हारी याद तो कभी गयी ही नहीं।

मुझे विश्वास  है कि  तुम खाली  नहीं बैठोगी।  तुम करोगी, कुछ न कुछ ज़रूर करोगी. और जो भी करोगी, सिर्फ सफल होने के लिए।  मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे पास रहेगा, चाहे मैं दुनिया में रहूँ  या न रहूँ।

और इस  चिठ्ठी को ख़तम करने से पहले, एक बात और कहना चाहूंगा मेरी बेटी के लिए। एक गुड़िया, चाहे वो पांच इंच की हो या पांच फुट की, हमेशा गुड़िया ही होती है।  और बेटी पापा के लिए गुड़िया ही होती है, चाहे वो पांच फुट से ज्यादा ही क्यों न हो जाये।

ईश्वर तुम्हारी हमेशा रक्षा करे


पापा जी





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Know Thyself. Only You know yourself through you internal Potency