आकांक्षित धर्म
धर्म जो है जानते हो क्या
असहज व्यथा जनित
है कवच जैसा वो सहनशील।
दुर्बल नहीं उसका अस्तित्व
जो चोटिल हो कुछ कंकड़।
और पत्थर के आघात से
और कुछ शब्दों के सोच से |
और अगर ऐसा कोई धर्म हो
जो टूटे एक ईंट की चोट से।
गति उस धर्म की हो
समाज बहिष्कृत नरक में |
रहे मानव रहे मानवता
ईश्वर के इस भुवन में।
नहीं चाहिए धर्म मुझे
नहीं चाहिए मंदिर मुझे |
नहीं चाहिए मस्जिद गिर्जे
नहीं चाहिए ग्रन्थ मुझे।
नहीं चाहिए वो दीक्षा
जो सिखाए अहंकार मुझे |
मैं जाऊं उस कोने में
जहाँ व्यथित एक प्यासा हो।
मैं जाऊं उस अँधेरे में
जहाँ शब्द न हो व्यथा के |
मैं जाऊं उस अँधेरे में
जहाँ आँख भी ढूंढे हाथों को।
आंसू पोंछने की चाहत में |
नहीं चाहिए रौशनी मुझे
झिलमिलाती दीपमाला से।
नहीं चाहिए इबादत अरदास
संगमरमर के पिंजरे से |
मेरा साथी एक दीपक
उस शङ्कित कोणे में।
जहाँ आँख भी ढूंढे हाथों को
आंसू पोंछने की चाहत में |
नहीं चाहिए धर्म ग्रन्थ
नहीं चाहिए परिभाषा मुझे।
मुझे छीनना है एक समाज
गर्वित सब जहाँ सिर्फ समाज से।
आज के संदर्भ में बिल्कुल उपयुक
ReplyDeleteSuch matured thoughts need to be injected in all the leaders of the day as also education system.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत आईना दिखाया
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