पापा तुम अजन्मे ही रहे।

 

भारत वर्ष आजाद हुआ। लेकिन गुलाम क्यों हुआ था? और हमारे पराक्रमी राजा लोग हारे क्यों थे? क्यों हमारे क्रांतिकारी वीर बार बार पकड़े जाते? जी, एकता का अभाव, और सामाजिक और राजतांत्रिक जीवन में स्वच्छता की कमी और भ्रष्टाचार का बहुआयामिक प्रभाव और प्रसार। इसी भ्रष्टाचार पर एक कथा, 

पैदा हुआ था, यह तब ही प्रमाणित हुआ जब वो मारा गया

 



पापा तुम अजन्मे ही रहे।

सागर नगर निगम के कार्यालय से निकला। हाथ में धरे हुए पापा के मृत्यु प्रमाण पत्र को किसी संभावित गलती से दूर होने की जांच करते हुए एक गहरी सांस ली और बोला, पापा, तुम जीवन भर अजन्मे ही रहे। मर कर तुमने प्रमाणित किया कि तुम पैदा भी हुए थे।

जी, सागर के पिता गंगा दास जी को जिंदगी भर अपना जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिला था, और उसकी कोशिश करते करते वो मर गए, और मर कर ही प्रमाणित किया कि वो पैदा भी हुए थे।

तो ऐसा हुआ कि गंगा दास जी पेशे से किसान थे, उनके पिता प्रयाग दास, दादा रुद्र प्रसाद दास, परदादा काशी नाथ दास, सब पेशे से किसान थे। अब सौभाग्य या दुर्भाग्य कुछ भी कहिए, सब अपने अपने माता पिता के एक मात्र संतान (जीवित रहने वाले) थे। गुरुकुल में पिता, दादा, परदादा ने हिंदी भाषा, रामायण, महाभारत पढ़ना और गणित सीख लिया, खेती तो घर पर ही सीख ली। उसमे जब भारत में हरित क्रांति का दौर आया तो सरकारी महकमों, रेडियो और बाद में टी वी ने भी कुछ सिखाया। उनमें से कोई कभी स्कूल नहीं गया, और उस समय की प्रथानुसार किसी का जन्म प्रमाण पत्र नहीं बना, और न ही जरूरत पड़ी।

वंश में सागर पहला बच्चा था जो हस्पताल में पैदा हुआ, और 1980 के बाद जन्म मृत्यु का पंजीकरण का विधान बन चुका था। सो हमारे सागर प्रसाद दास का जन्म प्रमाणित था। खेती में बड़ती हुई मेहनत, दूसरे व्यवसाओं में आमदनी की अच्छी आशा, और नए नए कौशलों का विकास और प्रलोभन था कि सागर, जो पढ़ाई में काफी अच्छा था, अपनी ऊंचाइयों को छूते हुए काफी आगे बड़ गया। उत्तर प्रदेश के गांव से निकल तहसील, जिला और लखनऊ होते हुए कलकत्ता में बहुत अच्छी नौकरी पर पहुंचा।

परदादा, दादा, परदादी, दादी, और साथ ही मां भी परलोक सिधार गई तो उसने पापा को राजी किया कि गांव की जमीन और घर बेच दो और कलकत्ता चले आयो। और इसी से शुरू हुई एक अनचाही कहानी।

जमीन सारी थी काशी नाथ जी के नाम। उनके बाद रूद्र दास जी, प्रयाग दास जी, गंगा दास जी, किसी ने सोचा ही नहीं की जमीन अपने नाम करी जाए।

अब बेचने की बात आई तो पंचायत ने कहा, "जी हम जानते तो है कि आप अपने पिता के बेटे, दादा के नाती और परदादा के परनाती हो, लेकिन बेचना हो तो कोई प्रमाण लाओ। और कुछ नही तो जन्म प्रमाण पत्र।"

प्रमाण क्या, गंगा दास भ्रमित।

"अजी तो आप ही दे दीजिए ना। आप तो जानते ही है ना।"

"देखो गंगा दास जी, हम जानते है, लेकिन ऐसा है हम जानते नहीं। फिर आप पैदा कहा हुए थे हमें तो ये भी न मालूम।"

"मैं पैदा तो ननिहाल में हुआ था।"

"तो फिर तो वही से लाना पड़ेगा आपका जन्म प्रमाण पत्र।"

"वहा से कैसे लाऊं? वो तो गांव ही नही रहा। बांध में पूरा गांव ले लिया और ननिहाल में मेरे से बड़े कोई बचे नहीं जो कुछ बता सके।"

"तो फिर हम कुछ नहीं कर सकते। "

जी, गंगा दास जी पंचायत, विधान सभा सदस्य, उनके चमचे, और कइयों से मिल लिए, लेकिन प्रमाण नहीं कर पाए कि वो पैदा हुए थे। और जब पैदा ही नहीं हुए तो जमीन जायदाद बेचे कैसे।

दौड़ धूप में कुछ साल बीते, कभी बेटे के पास रहते, कभी गांव में। बेटा समझ तो रहा था लेकिन नौकरी छोड़ कर गांव में रहने की अवस्था नही थी।

ऐसी ही हालात में गंगा दास जी बेटे के पास जा कर बीमार पड़ गए। सागर ने पापा को हस्पताल में भर्ती कराया और पता, उमर, सब कुछ लिखवाया। कुछ दिनों बाद जब पापा की मृत्यु हो गई, तो सब क्रिया कर्म करने के बाद हाथ में एक दिन मृत्यु प्रमाण पत्र आ गया।

और सागर बोला, देखो पापा, तुम कहते थे कि सिर्फ ईश्वर अजन्मे हैं, बाकी सब इस जन्म और मृत्यु के चक्र में बंधे है। इन अधिकारियों ने तो तुम्हें ईश्वर ही बना डाला था, तुमने मर कर प्रमाणित किया तुम अजन्मे नही, तुम जन्मे थे।

अनूप मुखर्जी "सागर"


4 comments:

  1. Good satire on the red talisman of our bureaucracy

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  2. Very nice storytelling, Dada.

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  3. Great story telling on the state of affairs

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  4. Interesting story. Such cases must be happening somewhere on daily basis but without reporting. Very flowing anecdote full of sarcasm.

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