आजकल हर रात एक जैसे ख्वाब देखता हूं। एक जैसे का यह मतलब नहीं की हर रात कॉपी पेस्ट हो रहा हो, लेकिन फिर भी ख्वाब एक दूसरे के पर्यवाची है यह कहने में मैं संकोच नहीं करूंगा।
मैं देखता हूं एक ऐसा घर जिसमें मेरे दादा और दादी सबसे बुजुर्ग वासिंदे है। और तुर्रा यह कि मैंने दादा जी को सिर्फ तस्वीरों में ही देखा है। वो तो इस दुनिया को छोड़ मेरे पैदा होने से 15 साल पहले ही कूच कर गए थे । यह अवश्य है कि दादी हमारे बचपन का अहम हिस्सा थी और जब वो गई तो मैं तथाकथित वयस्क हो चुका था।
खैर, दादा, दादी, पिता, चाचा, मां और सभी भाई बहन।
एक बड़ा सा मकान। उसमें बड़ा सा अहाता। अहाते के चारो ओर बरामदा। बरामदे के एक तरफ दो दो गुसल खाने और संडास। उसके दूसरी ओर रसोई घर और पूजा का कमरा। बाकी दोनों ओर कमरे। बरामदे पर तख्त लगे हुए सो आजकल की तरह किसी बैठक की अलग जरूरत नहीं। तख्त के अलावा तीन बड़ी सी कुर्सियां, डोलती हुई कुर्सियां, जिन पर बैठने का अधिकार दादा, दादी, पिता और चाचा को था। लेकिन दादी भी कम ही बैठती।
रोज के ख्वाबों में वही एक मकान। अक्सर उसका आंगन बादलों के ऊपर तैरता सा नजर आता। या फिर कहूं कोहरा घर में आंगन और फर्श पर उड़ता नजर आता।
कभी मैं और मेरी छोटी बहन उस कोहरे में घूमते नजर आते। कभी मैं दादी के साथ मकान के ऊपर हवा में घूमता।
कभी कभी उस मकान को बाहर की तरफ देखता तो चिल्लाता, यह कैसे हो गया।
उसकी दीवारों से निकलते वृक्षों के तने और टहनियां जताते, यह वो महल है जिसका ख्वाब तो देख रहा हूं, लेकिन जो ख्वाबों में भी टूट रहा है।
ख्वाब हमेशा किसी शादी की आवाज, या फिर शादी के जोड़े में खुद को या कभी किसी को देख कर ही टूटता।
और मैं रात के अंधेरे में सोचता रहता, क्या इस मकान में कोई रहता होगा। अगर हां, तो वहां कौन रहता होगा। कभी कोई रहा होगा? या सिर्फ ख्वाब ही रहे होंगे।
और सोचते सोचते भोर बुलाती, छोड़ उस छोर को जो शायद कहीं रहा होगा। पर मन अटक जाता, शायद मैं ही कभी रहा होऊंगा।
अनूप मुखर्जी "सागर"
बादलों के अंदर या कोहरे में हमारे उड़ने का सपना हमने ही मिलकर देखा था। ❤️❤️
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