दो अनुवाद

प्रथम प्रकाश ५ नवम्बर २०१५


बंगाली कवि क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की एक कविता

हिंदू और मुसलमान दोनों ही सहनीय है 
लेकिन उनकी चोटी और दाढ़ी असहनीय है
क्योंकि यही दोनों विवाद कराती हैं
चोटी में हिंदुत्व नहीं शायद पांडित्य है
जैसे की दाढ़ी में मुसलमानत्व नहीं शायद मौलवित्य है
और इस पांडित्य और इस मौलवित्य के चिन्हो को बालों
को लेकर दुनिआ बाल की खाल का खेल खेल रही है
आज जो लड़ाई छिड़ती है
वो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई नहीं
वो तो पंडित और मौलवी की विपरीत विचारधारा का संघर्ष है
रोशनी को लेकर कोई इंसान नहीं लड़ा
इंसान तो सदा लड़ा गाय बकरे को लेकर
(रूद्र मंगल रचनावली प्रथम भाग पृष्ठ ७०७ )

स्वामी विवेकानंद के साथ गोरक्षिणी सभा के एक सदस्य मिलने आते है.

उनके हाथ में एक गाय की तस्वीर है बोले, 
देश में सभी गाय माताओं को कसाई के हाथ लगने से बचाना, 
रुग्न और अकर्मण्य गायों को देखभाल करना उनका काम है. 
विवेकानंद स्वामी जी ने पुछा कि वो तो ठीक है
 लेकिन मध्य भारत में दुर्भिक्ष में ९ लाख लोग मारे गए है 
उन लोगो ने उनके सहायता के लिए क्या किया है. 
उस सज्जन ने कहा कि वो तो ठीक है 
लेकिन उनकी संस्था केवल गौ माता के लिए काम करती है; 
और दुर्भिक्ष तो मनुष्य के कर्मो का फल है उसमे वे क्या कर सकते है. 
विवेकानन्द स्वामी ने कहा कि तब तो यह भी कहा जा सकता है 
के गौमाता भी अपने कर्मो के फल पर कसाई के हाथ पड़ती है. 
किंकर्तव्यविमूढ़ व्यक्ति ने कहा हा, लेकिन उससे क्या, 
शास्त्रों में कहा गया है कि गाय हमारी माता है. 
हँसमुख स्वामी जी का उत्तर, हां वो तो है, 
अन्यथा आप जैसे कृति संतानो को कौन प्रसव करे

1 comment:

  1. Too brave to translate in the current era of intolerance

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