माँ दुर्गा का आव्हान

इस कविता की रचना काज़ी नज़रुल इस्लाम, ने की थी जिसके लिए उन्हें अँगरेज़ सरकार ने जेल भेजा और यह भारत की किसी भी भाषा की पहली निषिद्ध कविता थी।  इस कविता में राजनैतिक  व्यंग बहुत तीखा है  इसमें तत्कालीन सरकार और अन्य नेताओं पर व्यंग किया है. इसमें धर्म और धार्मिक नेताओं पर भी सख्त कटाक्ष किया गया है।

आनन्दमयी माँ यानी कि दुर्गा माता  का आवाहन

काज़ी नज़रुल इस्लाम

अनुवाद का प्रयास अनूप मुख़र्जी

और कब तक रहेगी बेटी मिट्टी के मूर्ति के पीछे ?
स्वर्ग तो तेरा जीत लिया अत्याचारी शक्ति चाण्डालों ने।
कोड़े मारते देवशिशुओं को, वीर युवकों को देते फांसी।
पूर्ण भारत आज कसाई खाना, आएगी कब तू सर्वनाशी?
देवसेना आज चलाती घानी काले पानी के द्वीपों में।
रणांगण में उतरेगा आज कौन, तू न आयी अगर कृपाण ले?
विष्णु आज खुद बन्दी है छः वर्ष के षड्यंत्र कारागार में।
चक्र उसका चरखा शायद,  हाथों की शक्ति खोये ।
महेश्वर आज सिन्धु किनारे योगासन में ध्यानमग्न जो,
अरविन्द चेतना - कब उदय होगी कौन जाने वो ?
हाय! ब्रह्मा आज असुर-ग्रसित-निष्काषित चित्तरञ्जन में
कमंडल का शान्तिजल जैसे की सिंचित करता चाँद,
शांति सुन सुन तिक्त अब यह मन, और भीषण क्षिप्त भया,
मृतकों के देश में मृत्यु ही शांति, यदि यही, तो और काम क्या?
शांति कहाँ ? शांति कहाँ ? कोई न जाने कब कहाँ |
हे माँ, तेरी उस असुर संहारक मूर्ति बिना
देवता! सब आज ज्योति हीन. निरंतर वो रहते हैं अनजान
कोई देव तो है अन्ध आज, कोई आज भय से दिन में भी काणा
इंद्र आज सलाहकार है, दानव राज के अत्याचारों में
अहंकारी भीम भी बेचता उसका अहंकार ५००० में।
रवि की रौशनी फैलती है माँ, दिशाओं से दिशान्तारो में
पर वो नहीं पहुंच सकी माँ, अन्धकार वन्दी  गृह में
गगन पथ में रवि रथ के सात सारथि दौड़ाए घोड़े
मर्त में दानव, मानव पीठ पर सवार, मारे कोड़े
वारि-इन्द्र -वरुण आज बांसुरी बजाय करुण सुरों में
बुड़ीगंगा के पुलिस के सीने, दस्यू राज के घाटी बने है।
पुरुषों के बाल पकड़ कर, दानव करते अपने जूते साफ़
मुख में नाम करे अल्लाह हरी, पूजे वो सिर्फ डंडा बेड़ी |
दाढ़ी हिलाए, फतवा झाड़े, मस्जिद जाये नमाज़ पढ़े
नहीं ख्याल, गुलामों के हरम में, केवल वन्दी वो  पड़े।
गुलाम वो, लानत गले में, सलाम करे जुल्मबाज़ो को
धर्मध्वजा उड़ाए दाढ़ी, गलीज़ मुख से क़ुरान भजे।
ताज बिना जिस नंगे सर पर, पड़ रही गरम जूती
धर्म कथा बोलते वो ही, पड़ते जो सब किताब पोथी |
उत्पीड़क को करू प्रणाम, शेष में नमन करू भगवन
हिजड़े भीरु के धर्म ज्ञान भौंडेपन से अब आता वमन।
पुरुष सभी देश के नाम पर, कहते चुगली, भरते उदर
छिपकली  है! और गंद नहीं ? छिः छिः , खाद्य इतना निकृष्ट ।
आज दानव के रंग महल में ३३ करोड़ खोजा गुलाम
लात खाते, चिल्लाए सिर्फ, मर गए ! मर गए !
मादी लोगो का मादि दोष यह, नाकस्वर के अहिंसा जाप
 शमशीर  उठा, माँ कर विनाश, नपुंसको के प्रेम का नाटक |
निकाल तलवार, ले आ युद्ध, अमरत्व का मंत्र दिखा
मादीयों को बना पुरुष, रक्त दे माँ, रक्त दिखा।
लक्ष्मी सरस्वती रख के आ माँ अपने उस कमल वन में
बुद्धिमान सिद्धि दाता गणेश नही चाहिए अब इस रण में।
घूंघट में छुपी बहु को निकाल घर बाहर कर माँ
और वो  तुम्हारा देवसेनापति ? मयूर पर चढा हुआ दामाद !
दूर हटा ! दूर हटा ! इन सब सर्वनाशी बलाओं को
नहीं चाहिए यह भांग खोर शिव , ऊपर से शरीर पर गंगा मिटटी
तू अकेली आ पगली बेटी ता थैया ता थैया नृत्य करते
रक्त प्यास में 'मैं भूखी हूँ ' की आर्त कीर्तन रक्त-कण्ठ में लिये |
'मैं भूखी हूँ ' की रक्त क्षेपी आ माँ काली
गुरू  की अगुवाई में वो तेरी सिख सेना
देख हुंकारे 'जय अकाली ' |
अब ये तेरी मृत्तिका मृण्मयी मूर्ति हेरी
भर आती है दोनों आँखे  और कितना समय करेगी माँ देरी ?
महिषासुर वध कर सोचा था तूने रहेगी अब सुख में
रह ना पाई शांत, त्रेता युग में आसान तेरा हिल उठा राम के दुःख से |
और ना आयी तू रुद्राणी, पता नहीं किसीने बुलाया या नहीं ?
राजपूताने में अचानक बज उठी रक्तवीणा 'मैं भूखी हूँ ' की
वृथा ही गयी शिराज-टीपू-मीर कासिम का बलिदान
चण्डी, तूने लिया योगमाया का रूप, सब ने माना, विधि का विधान |
अचानक कहीं उठी क्षिप्त वो विद्रोहिणी झाँसी की रानी
क्षिप्त माँ के अभिमान में भी माँ, ना आयी तू रे माँ भवानी |
और कितने दिन लेगी पूजा इस तरह धोखा देकर |
पाषाण  बाप की पाषाण बेटी आ माँ अबकी दशभुजे
बहुत बकरे भैंस खाये तूने, भूख क्या तेरी ना मिटी अभी ?
आ जा पाषाणी अब लेगी  तू अपने सन्तानो की रक्तसुधा |
दुर्बलों की बलि देकर भयातुरों की यह शक्तिपूजा
 दूर कर दे  माँ, कह दे संतान का रक्त मांगे अब यह दशभुजा |
 उसीदिन होगा  जननी तेरा  वास्तविक अभिषेक
गूंजेगी वादन वंदना गाऊंगा उस दिन वंदन अभिषेक
कैलाश से गिरिपत्नी  की  कन्या दुलारमयी
आजा आनंदमयी आजा आनंदमयी |

4 comments:

  1. Excellent translator the original poem. Even after a generation, the truth and pain of this poem has not changed. Koti koti pranam to Kazi Nazrul.

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  2. Translation conveys the meaning inherent in the poem. Good efforts..

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  3. EXCELLENTLY COMPOSED-N-WRITTEN

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  4. बहुत ही उत्तम अनुवाद और सटीक शब्द चयन

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