रहस्य कहानियां आप सब ने पड़ी होगी। भाषा की मधुरता, शब्दों की मधुरता और किसी एक शब्द को इसके अनेक अर्थों के साथ व्यवहार करना; साथ ही विभिन्न पर्यायवाची शब्दों के सुंदर मिश्रित व्यवहार को मैं भाषा का मधुर रहस्य कहना पसंद करूँगा।
मधुरता और शब्दों के मिश्रण की खूबसूरती हर भाषा में है, लेकिन क्यों उसको रहस्य कहा जाए?
आजकल संवाद और विचारों का आदान प्रदान काम हो गया है। परिहास और कौतुक का स्थान कामुकता या अपमान जनक समझे जाने वाले शब्दों और वाक्यों ने ले लिया है। एक ऐसे वातावरण में भाषा की खूबसूरती को रहस्यमय सुंदरता कहना शायद अत्युक्ति न हो।
अब जैसे धोखा खाया व्यक्ति सावधान रहता है तो कहा जाता है "दूध का जला छाछ को फूंक कर पीता है"। अब दुर्भाग्य से जो हर मोड़ पर धोखा खाकर हर समय डरता हो, उसके लिए कहा जाए कि "दूध का जला छाछ में फूंक मारता है, और छाछ का जला कुल्फी को भी शक से देखता है, कहीं जला ना दे"।
यही भाषा की खूबसूरती है, और यही है भाषा का रहस्य ।
अब हम किसी साहित्त्यकार की कृति को ही लेते हैं, जैसे की हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला । मधुशाला में साकी, प्याला, हाला, मदिरा, मदिरालय, आदि शब्दों का अर्थ जीवन, संसार, और अध्यात्म की उच्च कोटि की सोच से लिया गया है, कहीं पर भी इनके शाब्दिक अर्थ का प्रयोग नहीं हुआ ।
अब गाड़ी कभी गाढ़ी नहीं होती, हमेशा चलती रहती है। अक्सर चीजें खो जाया करती हैं, कभी जो खोया था, उसकी खोज करते करते मिल भी जाता है । प्रेमी और कवि जन चाँद देख कर भी गाते हैं, खोया खोया चाँद, और अगर प्रेमी जन धोखा खा चुका हो तो खोया खोया मटरगश्ती कर रहा होता है। लेकिन ज़नाब- खोया तो हर कोई खाने का शौक रखता है । जी हाँ, मधु से मोह तो सब करते हैं, लेकिन मधुमेह को कोई जीवन साथी नहीं बनाना चाहेगा। वैसे मटरगश्ती करते हुए भुंजे मटर खाने का मजा ही कुछ और है ।
अब हर कोई जूते चप्पल तो पहनता है, और सीधा ही पहनता है, लेकिन कभी न कभी, कहीं न कहीं, हमें कुछ तो ऐसे मिल ही जाते हैं जो केवल जूते चप्पल से ही सीधा होता हैं, यानि कि जब तक जूतम पैजार न की जाए, तब तक उनकी चाल टेढ़ी ही रहती है, जूते फिर भी उन्होंने सीधे ही पहने होते हैं ।
भाषा की खूबसूरती तो उभर कर आती है भक्ति संगीत में, जिसको आधुनिक संगीत, विशेषकर १९५० से २००० के सिने जगत ने बड़ी गहराई से प्रयोग किया है । अब एक भक्तमंडली गाना गा रही है, "आज साजन मोहे अंग लगा लो, जन्म सफल हो जाय", मंडली तो कृष्ण भक्ति मैं लीन है, साथ ही परदे पर गुलाबो अपने साजन से मिलने को तरस रही है, लेकिन भजन के अनुरूप ही वो भी साजन से दूर ही रहती है, मिल नहीं पाती ।
जी, भाषा की खूबसूरती की कोई सीमा नहीं है, अगर बोलने और सुनने वाले, दोनों को भाषा की समझ हो।
इस विषय पर और कुछ आगे भी, तब तक, इंतज़ार ।
अनूप मुख़र्जी "सागर"
भाषा की व्याख्या बहुत खूब है, अगले भाग का इन्तजार रहेगा
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत प्रस्तुति। भाषा की खूबसूरती ही समानार्थक और विरोधाभास शब्दों से बनती है।
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