सिर्फ तुम्हारी वाणी नहीं, हे बंधू,


गुरुदेव रविंद्र नाथ ठाकुर की कविता- एक चेष्टा मेरी तरफ से 

सिर्फ तुम्हारी वाणी नहीं, हे बंधू, 

सिर्फ तुम्हारी वाणी नहीं, हे बंधू, हे प्रिय, 

कभी कहीं प्राणों में, अपना स्पर्श भी देना। 

पूरे पथ के क्लान्ति मेरी, सारे  दिन की तृष्णा, 

कैसे शांत करूँ, दिशाहीन, देख ना पाऊं दिशा-

यह अँधेरा पूर्ण तुम्हीं में प्रभु, यही बता देना। 


सिर्फ तुम्हारी वाणी नहीं, हे बंधू, हे प्रिय, 

कभी कहीं प्राणों में, अपना स्पर्श भी देना। 


ह्रदय मेरा तो देना चाहे, केवल लेना नहीं, 

ह्रदय में मैं वहन करूँ, उसका जो भी है संचय। 

हाथ अपना बड़ा दो बंधू, दो मेरे हाथों में -

धरूंगा उसे, भरूंगा उसे, रखूँगा उसे साथ में, 

अकेले मेरा पथ पर चलना, करूँगा रमणीय। 


सिर्फ तुम्हारी वाणी नहीं, हे बंधू, हे प्रिय, 

कभी कहीं प्राणों में, अपना स्पर्श भी देना। 

 

अनूप मुख़र्जी "सागर"


1 comment:

  1. Nice to read the thought provoking poem. Choice of words is superb.

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