स्वार्थ, समाज, देश

स्वार्थ, समाज, देश   


निजी  स्वार्थ जब पारिवारिक स्वार्थ  बड़ा हो जाता है तब परिवार नष्ट होता है।  
जब पारिवारिक और निजी स्वार्थ समाज और देश के प्रति उत्तरदाईत्व से बड़ा हो जाता तो हम समाज और देश के सर्वनाश की नींव रखते है । केवल स्वार्थ और स्वार्थ में अंधे लोगों के कारण अक्सर परिवार, समाज और देश नष्ट हो जाते है. इतिहास इसके असंख्य दृष्टान्त प्रस्तुत कर चुका है। यह दृष्टांत देखने के लिए इतिहास की पुस्तकों का अध्ययन करने की भी आवश्यकता नहीं, हमारे आस पास बहुत परिवार मिल जाएंगे, क्या पता मेरा अपना और आपका परिवार ही इसका दृष्टांत हो । 

 स्वार्थ मनुष्य को अँधा कर देता है।  ऐसा मनुष्य अपने बुजुर्गों का अपमान करने से संकोच नहीं करता, वो देशद्रोहिता करने से भी संकोच नहीं करता। पारिवारिक व्यवस्था में बुज़ुर्गों का सम्मान सबसे पहली सीख होती है। ऐसे संस्कार वाला युवक या युवती अपने पिता माता को यह नहीं कहता कि ज़रूरी नहीं के आपकी सीख मानके चलना ज़रूरी हो, ऐसा युवक युवती बस या मेट्रो में महिलाओं और बुज़ुर्गों के लिए सीट छोडने में कोई संकोच नहीं करता .

क्या हम लोग एक ऐसे समाज की स्थापना नहीं कर सकते जिसमे स्वार्थ से के मुकाबले में सम्मान की कीमत ज्यादा हो।  इंसान एक डरावने स्तर तक स्वार्थी हो चुका है  और समाज के मूल्यों का ह्यास भी भयानक परिस्थिति की ओर ले जा रहा है। 

इसके दोषी हम सब है।  अन्याय सहन करने की सहन शक्ति हमने बहुत बड़ा ली है। हम अपनी सहन शक्ति की सीमा तब तक अतिक्रमण नहीं करते जब तक परिवार, समाज, देश और हमारी संस्थाओं के प्रति होता अन्याय हमें व्यक्तिगत रूप से आक्रमण नहीं करता।  देश और समाज के लिए उठ खड़े  होना और विरोध का स्वर ऊँचा करना और न्यायोचित बात कहना हम भूल चुके हैं। हम एक ऐसे कुँए में समाते चले जा रहे हैं जिसका कोई तल नहीं है। उठ कर खड़े होने के लिए पैर रखने की ज़मीन भी खोती चली जा रही है। वस्त्रहरण रोकने को हम सिर्फ प्रार्थना करते हैं, विरोध नहीं करते।  हम शुरू करते हैं परिवार में वरिष्ठ जनो के अपमान से, बंधुओं के साथ विश्वासघात करते हुए इसी स्नातकता की धारावाहिकता को चलाते हुए समाज का अपमान, न्याय और कानून का विरोध करते हुए खुद को प्राथमिकता देते हुए दुनिया की हर बात को पीछे छोड़ते हुए बढ़ते जाते है।  

शायद यही इस कलियुग का अंत है, और शायद उस का इंतज़ार है।  

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