ज़लज़ला! कैसे नहीं होता ?
नहीं होने का हिसाब
कभी पूरा नहीं होता।
ढूंढ़ते रहे गर काफिले
हमसफ़र भी शायद न मिले।
दस कदम चल पड़े कही एक ओर ,
दिखेंगे हमकदम पीछे, और, और।
नफरतों के ज़हर से तो
ज़र्रे भी रहते नावाकिफ़।
गर दिखाएँ रास्ता हमवतन को,
देखें ज़रा ज़लज़ला कैसे नहीं होता।
समझे हमें जो ज़र्रे, रोंदते जूतों से
जरा दिल से सब मिलकर
आवाज़ तो बुलंद करो यारों
तूफान ऐसा उठाओं यारो,
ज़र्रों से उनकी आँखों पर ही
अँधेरा कैसे नहीं होता।
मौत तो मयस्सर है सभी को
ज़िन्दगी का जीतना भी
मयस्सर कैसे नहीं होता।
ले चल मेरे दोस्त, हाथ मेरा थाम
तू मेरे साथ, या फिर मैं तेरे साथ,
काफिला हम दोनों का देगा काम
उठेंगे कदम जब, अवाम भी देगा साथ।
जूतों नीचे रोंदने वाले मिले
हमने यकीन किया खुदा पर ही।
इंसान तो खुदा ने ही बनाया,
मिल भी गए कुछ इंसान यहाँ पर ही।
शैतानों की नस्ल तो सदा ही रही,
दुनिया तो फिर भी खुदा ने ही सवारी।
मौत का दिन उसने मयस्सर किया,
वो तो मिलेगी सिर्फ आखिर में ही।
क्या डरना उससे, जो मिलेगी एक बार।
मोहब्बत करते हैं ज़िन्दगी से सिर्फ
यह ही तो है जो रोज़ मयस्सर है
बाँहों पर करें यकीन अपनी,
कर लो यारी अपनी, अपनी ज़िन्दगी से।
आओ चले दोस्त, नाव बहाएं
कहकशां की दरिया में चलकर
चाँद तारों की रौशनी में नहाएं।
तदबीरों का जाल कुछ ऐसा बने
मजबूरो को राहत दे, कुछ ऐसे बने।
खुद्दारी अपनी, कमज़ोर न हो,
कमज़ोरों का हो सहारा, \
कुछ ऐसी खुदाई बने।
मौत तो दोस्त आती रहेगी,
गले लगा लेंगे उसको भी,
जब वो मयस्सर होगी।
रात से पहले मुस्कुरा तो ले
शाम होने तक कदम कुछ ऐसे उठायें
ज़लज़ले कुछ दिलों में कैसे न उठे।
अशर्फियों के मतवाले दिमागों को
मजबूर करे रिश्ते समझने को।
ज़माने की गर्दिश इंसानों ने ही बनाई
खुदा की खुदाई भी हमने ही पहचानी,
ज़न्नत भी हमारी बनाई,
जहन्नुम? वो भी तो हमारी बनाई !
आओ दोस्त, हाथ थामे हम,
ज़लज़ला कोई उठाये ऐसा,
जहन्नुम समां जाएँ ज़मीं के दरारों में।
जज़्बा, हाथ, तदबीर, जब एक होगा ,
ज़लज़ला ? देखें वो भी कैसे नहीं होता।
दिल की गहराइयों से निकले कुछ शब्द जो दिल और दिमाग़ को झकझोरती हैं
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