जासूसी का मेहनतनामा


अच्छी खासी साधारण सी जिंदगी कट रही थी। शादी के 4 साल हो गए। एक बेटी, सास, ससुर, भरा पूरा घर था। खुशियां थी, कभी कभी अनचाही घर्षणों की गर्मी भी थी।

आज पीछे मुड़ देखती हूं तो लगता है की जो ग्रहण उन खुशियों को लगा था वो किसी राहु केतु या शनि का नहीं, मेरे ही मन का था।

सास भी कभी बहू थी, कहानी घर घर की, इत्यादि साबुन नाटकों का दबदबा टेलीविजन पर था और इनकी घुसपैठ घरों में अच्छी तरह हो गई थी। इन नाटकों में आम बात थी की विवाहित युवक दौरे पर जाता तो दूसरा घर बसाया, किसी भी चरित्र का विवाहोत्तर संबंध इनमे आम बात थी। कुछ नाटकों का प्रभाव, कुछ महिला स्वाधीनता जागरूकता संगठनों का साहचार्य, सब मिला कर "मेरे साथ धोखा तो ना हो रहा" की मानसिकता घर कर गई।

और उसके बाद जासूसी शुरू हो गई। हर तरह से कोशिश कर ली जासूसी की। भाई बहन का संबंध कैसा है, देवर जेठ मेरे पति को लूट तो नही रहे, मेरे मायके के प्रति विचार धारा बदल क्यों रही है, ऑफिस में लड़कियां क्यों है, बाजार में मेरे ही सामने कोई महिला मेरे पति से हंस हंस कर बात कर रही है तो मेरे पीछे क्या हो रहा होगा, ये ऑफिस के काम से बाहर जाते तो मुझे क्यों नही ले जाते, सहेली की सहेली के भाई की साली के देवर भी तो इसी तरह का काम करते है और अपनी पत्नी को ले जाते है?

बीसियों, या फिर पचासों सवाल, जवाब न मिला। नतीजा मेरा शक विश्वास में बदलता चला गया। दो चार बार ऑफिस पहुंच गई तो जनाब कभी मिलते ही नहीं।

और विद्रोह का युद्ध विराम लगा जब पति ने नौकरी छोड़ दी और देश छोड़ गया। शक तो स्थापित हो गया लेकिन संतोष था की भाई, बहन, सहकर्मी, सब से अलग कर पाई। कुछ दिनों में वापस भी खींच लूंगी।

जासूस को मेहनतनामा देना पड़ता है लेकिन मैने तो खुद ही जासूसी की थी, इसलिए मेहनतनामा भी मुझे ही देना पड़ेगा यह तब न सोचा था।

पति को वापस लाने में तो १० साल लग गए, एक छोड़ी हुई पत्नी का तमगा मिल गया मेहनतनामे में। सोचा जब वापस आ गए तो तो शायद जिंदगी भी मिल जाए पर किसे पता था कि मेहनतनामे की वसूली तो ऊपर बैठा वो करवाएगा, पता नही कब तक।

जी हां, जासूसी का मेहनतनामा - पहली किस्त थी एक दशक का छोड़ी हुई रहना, और शायद बाकी जिंदगी यही की कहने को तो पति है लेकिन उसके किसी भी समान को हाथ लगाने की अनुमति नहीं। रोज नही तो हफ्ते में ३ दिन तो इस बात का अहसास दिलाना की मैंने पूरा परिवार, अतीत और भविष्य, दोनो बर्बाद किया।

जब किया तब तो जो ठीक समझा किया, अब जासूसी का मेहनतनामा तो देना ही पड़ेगा। हिसाब तो ऊपर वाला करेगा जरूर।
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एक अति उत्साहित महिला की गाथा


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