दु:ख है, मृत्यु है, फिर भी
दु:ख है, मृत्यु है, विरह अग्नि दहकती है,
फिर भी शान्ति, फिर भी आनन्द,
फिर भी अनन्त शाश्वत है।
फिर भी प्राण नित्य आवाहमाण है,
सूर्य, चन्द्र और तारों की यात्रा
भी सुन्दर है, शाश्वत है।
वसन्त भी कुन्ज में आये
अपने विचित्र रागों साथ।
सागर की तरंगे समाती जल में,
नई तरंगे उनसे ही उठती ।
पंखुड़ियां झड़ जाती डाली से,
नये पुष्प वहीं खिलते ।
न कहीं पूर्ण क्षय है,
न कहीं अन्तिम अन्त है।
ना ही, कहीं सम्पूर्ण दीनता है,
तुम्हारी इसी संरचना के मध्य
चरणों पर अपना स्थान मागूं।।
अनुप मुखर्जी "सागर"
रविन्द्र नाथ ठाकुर की एक कविता को हिन्दी पाठकों लिये लाने की चेष्टा

Nice and appealing
ReplyDeleteUp-scale creative writing
Congratulations