हार का डर
असहिष्णु कहते है वो हमें, क्यों
हमारे तर्क उनको हजम नही होते।
इल्जाम लगाते है वो हम पर किहम में बुर्जुआ और नाज़ी बसे।
हम तो केवल आईना दिखाते उनको
चेहरा वो देख आईना भी तोड़ देते।
हम तो चले जा रहे थे किनारे किनारे
न तूफान का डर, शिकवा भी किससे।
शमशीर चमकाते झलकाते वो हमेशा मिले
फकीरों से भी डरते, झोले में छुरी न मिले।
हम तो वो फकीर है जो रखते
छुरी, सिर्फ कंद मूल काटने को
शमशीरें चमकती उनके हाथों में,
हमारी सांसों के चलने से जिनको
तूफ़ान का अंदेशा सा हो जाता है।
होठों पर हम जपते नाम हरी का,
या खुदा का, या फिर उस अनाम का।
उनके लाठियां गोलियां बरसती रही,
जीत कर भी वो, गले में हार लेकर चलते रहे।
उनको क्या पता फूलती सांसे हमारी
पेड़ की छाया में ही आराम फरमा लेंगी।
हम तो मिट्टी से निकले, मिट्टी में रहे,
हार के डर को जीतने के नशे में
बेखबर, हार को गले में चिपकाय,
वो चलते रहे, खाली, डरते रहे,
डरते रहे, दबाते रहे, चलते भी रहे।
अनुप मुख़र्जी "सागर"
६ मई २०२१
No comments:
Post a Comment