14 सितंबर। हर साल इस दिन हिन्दी दिवस पर कुछ न कुछ रस्म अदायगी होती है। अक्सर सोचता हूं हिन्दी भाषा के संदर्भ में क्यों नहीं एक सुनियोजित सोच और कार्य प्रणाली का क्रियान्वन नही हुआ।
मुझे अक्सर लगता है, और कई सज्जनों की असहमति का जोखिम उठाते हुए कहूंगा, अभी तक आपस में बहस इस पर ही जारी है कि हिंदी कौन सी हो। सरकारी हिंदी बहुत क्लिष्ट है, साधारण बोलचाल की भाषा से अलग। और भाषा अगर मन के भावों को व्यक्त करने में असमर्थ हो, तो वो जान मानस की भाषा नही रहती।
दूसरी समस्या, हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग, या इस्तेमाल, जो भी कहिए। कोई भी भाषा हर 150 किलोमीटर पर बदलती है। अब मैं अगर इसको कहूं की भाषा हर 150 कोस पर बदलती है तो पिछले 30 वर्षों में जन्मी जनसंख्या को शायद समझ ना आए। जी हां, भाषा बदलने के साथ साथ अन्य भाषाओं से लिए हुए शब्द किसी भाषा को समर्थ बनाते हैं, विकसित करते हैं। अंग्रेजी की कोई डिक्शनरी उठाइए, शब्दों की उत्पत्ति के बारे में लिखा होगा। नेशनल बुक ट्रस्ट के द्वारा प्रकाशित हिन्दी शब्द कोष में भी शब्दों की उत्पत्ति के बारे में लिखा गया है। लेकिन जब भाषाओं को धर्म और भूगोल की सीमाओं में सीमित किया जाना शुरू हुआ, भाषाओं का नुकसान हुआ।
उदाहरण स्वरूप पंजाब के निवासियों की भाषा पंजाबी है जिसकी लिपि गुरुमुखी है। पंजाबी सूबा और उसके बाद के कुछ आंदोलनों में गुरुमुखी और पंजाबी को सिक्ख धर्म से जोड़ा जाने लगा तो नुकसान पंजाबी का हुआ। इस क्रिया के प्रतिक्रिया के रूप में कई पंजाबी बोलने वाले हिंदू परिवारों ने अपनी मातृभाषा पंजाबी से हट कर हिन्दी लिखवानी शुरू कर दी। लेकिन हिन्दी को फायदा भी नही हुआ क्योंकि यह सिर्फ प्रतिक्रिया थी। वो बोलचाल में पंजाबी ही बोलते हैं और बोलते रहेंगे ।
भाषा का विभाजन कुछ स्थानों पर इतना भयानक है कि बिना देखे हम सोच ही नहीं सकते। मॉरीशस और कुछ और देशों में जहां गिरमितिया जनसंख्या है वहां भाषा को ही धर्म मान लेते है । हिन्दी बोलने वाले हिंदू, तमिल बोलने वाले अपना धर्म ही तमिल बताते है। सिर्फ तमिल नही, यह तेलेगु, मराठी के साथ भी है।
शायद एक या दो दशकों से एक अजीब वक्तव्य सामने आ रहा है, उर्दू के शब्दों या उनके अपभ्रंशों का उपयोग वर्जित करने की मांग। क्या हम इस मांग के चलते मुंशी प्रेमचंद और उनके समकालीन लेखकों को हिन्दी साहित्य के स्तंभ नही मानेंगे? कदाचित कोई हिन्दी साहित्य को उन साहित्यकारों को त्याग कर नहीं देखेगा।
अब बताइए, कदाचित और शायद, जरा, चंद और थोड़ा, जरूरत और आवश्यकता, अगर और यदि, यह सभी शब्द हिन्दी भाषा का अभिन्न अंग बन चुके हैं।
इसके अलावा (या अतिरिक्त) कई शब्द भाषा के परिवर्तन से अपना रूप भी बदलते है। अंग्रेजी की ट्रेन हिन्दी में रेल या फिर रेल गाड़ी बन गई, हिन्दी की मोटर कार अंग्रेजी से ही ली गई।
लेकिन कुछ शब्दों का मिश्रण अजीब लगता है। सनसेट हो गया भद्दा लगता है, शाम ढल गई अच्छा लगेगा। सूर्यास्त हो गया, पता नही कितने लोग बोलेंगे केवल मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ चुनिंदा जिलों को छोड़। कितने एज हो गई सुनने के मुकाबले कितनी उमर हो गई सुनना ज्यादा अच्छा लगेगा। ज्यादा ब्यूटीफुल की जगह ज्यादा खूबसूरत या ज्यादा सुंदर दोनो अच्छे लगते हैं।
सिंध, गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र, कावेरी इत्यादि की संस्कृतियों ने जो शब्द हिन्दी भाषा में जोड़े हैं, मेरे विचार ( या फिर ख्याल) से उन सभी शब्दों का प्रयोग कर हिन्दी को सम्पूर्ण भारत की स्वीकार्य भाषा बनाने की तरफ सोचना चाहिए। लेकिन जैसे ही कुछ तंग मनोवृत्ति के लोग हिन्दी को बलपूर्वक (या जबदस्ती) दूसरों पर लादने की बात करते हैं, तुरंत उन भाषाओं के चंद लोग हिन्दी को साम्राज्यवादी भाषा का दर्जा देते हुए उसके विरोध में उठ खड़े होते हैं।
जी, 70 सालों (वर्षों) में अभी तक हम यह सहमति नहीं बन पाए की हिन्दी और भारतवर्ष की जनता की अनेक मातृभाषाओं में क्या संबंध रहेगा। और जबतक यह संबंध पारस्परिक प्यार और विश्वास का नही हो पाता तब तक हमें अंग्रेजी की जरूरत पड़ती रहेगी। और हमारे भाषा ज्ञानियों को यह भी समझना पड़ेगा की हर भाषा अच्छी है, मीठी है। सबका विकास सबके विश्वास से ही संभव होगा।
अनूप मुखर्जी "सागर"
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