जब गृह के द्वार ध्वंस हुए

 


रात्रि झंझावात में जब 
गृह के, द्वार ध्वंस हुए 
क्या पता था तुम आये 
हो मेरे ही आलय। 


छा गए थे घोर अँधेरे 
बुझ गए थे, दीप मेरे। 
शून्यता की ओर हाथ बढ़ाये, 
किस के लिए ?

क्या पता था तुम आये 
हो मेरे ही आलय।

स्वप्न रत्न पड़े रह गए , 
घनघोर उस अँधेरे में। 
क्या पता कि तुम आये 
थे, मेरे ही आलय। 
झंझावात ही तुम्हारी 
ध्वजा, मैने ना जानी। 

भोर आने पर देखा, ये क्या, 
तुम खड़े हो मेरे सम्मुख, 
शून्य हुए व्यथित हृदय को  
 पददलित किये। 

क्या पता था तुम आये 
हो मेरे ही आलय। 


अनुप मुख़र्जी "सागर"

2 comments:

  1. वाह क्या बात है। मुझे लगा मैं रविंद्र नाथ ठाकुर जैसे किसी बड़े रचनाकार की लिखी कोई रचना पर रही हुईं।

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  2. A bit difficult but interesting poetry. Kudos to you.

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