मेरे किनारे की ओर

 


किनारा तो किनारा ही है। अब जहां मैं बैठा वो मेरा, और  दूसरा किनारा उसका।

उसका, किसका?

लेकिन क्या नदी के किनारे इतने अलग है की उनको तेरे मेरे में बांट लिया जाए। अब अगर मैं नदी में कूद पढूं और तैरते हुए दूसरी तरफ जाऊं, और वहीं बस जाऊं तो वो मेरा किनारा हो जाएगा। तब आज का यह मेरा किनारा दूसरे का हो जाएगा।

जिंदगी ऐसी ही है। इसमें कुछ भी स्थाई नहीं है। न घर, न शरीर, न मन की भावनाएं, और न ही किनारा।

अब कुछ कहते हैं की शादी हुई तो दो किनारे मिल गए। लेकिन ऐसा होता तो नही। नदी के किनारे न कभी मिले, न मिलेंगे। कुछ दिन के मिलने का नाटक होता है केवल, उसके बाद वही बाड़, वही सूखा, वही जमीन बहा कर ले जाना और वही कभी कभी नदी का स्त्रोत बदल कर नई धारा का स्थापन करना । और जब नदी ही सूख जाए तो कहां का किनारा? तब सब सूखा सपाट मैदान, शायद बंजर, रेत।

सो दोस्तों, यह सोच रखना की " मेरे किनारे की ओर " मुझे साफ सपाट नही लगता। इसमें तो मैं मेरे किनारे के स्वार्थ के लिए दूसरे किनारे को तबाह करने की सोचूंगा। और फिर वो उस तबाह करने की सोच की प्रतियोगिता बन कर रह जाएगी।

सो, मेरे किनारे की ओर नही, किनारों की ओर, सोच यह रखें। परिवार, समाज, सब स्वस्थ रहेंगे। याद रखना पड़ेगा की प्रकृति की सुंदरता, विशेष कर सूर्योदय या सूर्यास्त की आभा और उसके रंगो के मेल बंधन हम हमेशा दूसरे किनारे पर ही देखते है। तो फिर मेरे किनारे की ओर क्यों। धारा को बहने दे और धारा और उसके किनारों पर तेरी मेरी परिभाषा ना ही थोपें।

अनूप मुखर्जी "सागर"


No comments:

Post a Comment

Know Thyself. Only You know yourself through you internal Potency