शहर से काफी दूर उस गांव में करीब तीन दशक बाद गया था। आज भी एक दोस्त की बाइक ले ली थी क्योंकि पता था कि दिन दिन में तो वहां पहुंचने के कुछ साधन मिल जाएंगे लेकिन संध्यावके उपरांत शायद कुछ न मिले। साथ में बेटे को बिठा लिया जो किशोर अवस्था को पार कर रहा था लेकिन उस पीढ़ी से था जो वर्तमान से परिचित होने के लिए आसपास के लोगों और परिस्थितियों के अनुभव से ज्यादा गूगल पर अधिक भरोसा करता था।
खैर, रिश्तेदार के घर कुछ घंटे बिता कर निकला तो बाहर अंधेरा हो चुका था। गली में घरों से छन कर कुछ रोशनी जरूर आती दिखी, पर यह साफ था कि सार्वजनिक रोशनी नदारद थी और मकानों से आगे बड़ने पर घुप अंधेरा ही मिलेगा।
अंधेरा देखा कर वो थोड़ा घबराया, " पापा, इतना अंधेरा क्यों हैं हर तरफ।"
"यहां सड़क पर रोशनी नही है, गली में ही थोड़ी रोशनी आ रही है।"
बात बात में गलियां पर कर गांव के बाहर आ गए। हर तरफ घुप अंधेरा, मुख्य सड़क काफी दूर थी और उसे पहले कोई रोशनी मिलने वाली नही थी। बेटे को अंधेरे का संपूर्ण अहसास कराने के लिए बाइक की लाईट बंद कर दी। अब तो उसका अंदर दहल सा गया। "पापा, क्या कर रहे हो। इस अंधेरे में तो हाथ भी नहीं दिखता, बाइक का हैंडल भी नही दिखेगा और आपने रोशनी बंद कर दी।"
"डरते हो? अंधेरे से क्यों डरते हो?"
"नहीं, वैसे कोई नही, फिर भी अच्छा नहीं लग सकता, और डर भी कोई अजीब थोड़ी ही है, पता नही लोग कैसे रह लेते है। फिर आप तो शहर वाले हैं, पता नही आपको क्यों अच्छा लग रहा है? अब चलो जल्दी, मुझे यहां से निकालो।"
बाइक की लाईट जला कर मैने कहा, " अंधेरे में किसका दर? भूत का? वो तो अतीत है, और अतीत से क्या डरना? अनजान अंधेरे से डरना? तो भविष्य तो अनजान है, और जो अनजान है उससे क्या डर? और वर्तमान? वो सामने है, वर्तमान से तो जूझना है, डरना नही।"
"अंधेरा कुछ नही होता। सिर्फ रोशनी होती है, और रोशनी का न होना ही अंधेरा है। जहां कहीं रोशनी है, वहां अंधेरा जरूर होगा, चाहे परछाई के रूप में ही क्यों न हो। रोशनी में तुम हर तरफ देखते हो, दूसरों को देखते हो, आशा करते हो, आशा निराशा हिंडोलों में डोलते हो। धूप छांव का खेल देखते, खुद का स्थान पहचान नहीं पाते। अंधेरे में तुम व्याप्त हो जाते हो, अंधेरा तुममें व्याप्त होता है। तुम तब खुद को अनुभव कर सकते हो, पहचान सकते हो, संवाद कर सकते हो, खो नही सकते। अंधेरा तुम्हें निराश नही कर सकता, रोशनी ही तुम्हें निराश करती है। रोशनी की आशा भी निराश कर सकती है।"
" इसलिए अंधेरे से डरो नहीं, अंधेरे को पहचानो, खुद को पहचानो, अंधेरे को इस्तेमाल करो, खुद का इस्तेमाल खुद करो। खुद ही शस्त्र बनो, खुद ही ढाल बनो। खुद से खुद ही जीतो, अंधेरे से ही नही, रोशनी से भी जीतो। बस डरो मत, डर को जीत लो। "
अनुप मुखर्जी " सागर"
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