तीन दशक, तीन बुद्धिजीवी
व्यंग
१९७० का मध्य
दिल्ली में खबर आयी कि तीन पुल बनाएं जाएंगे। तीनो पुल रेल लाइन के ऊपर होंगे। एक रिश्तेदार जो उन दिनों के वाम मानसिकता में बंधे हुए थे हमारे घर आए और बात बात में बन रहे तीन पुलों की बात छिड़ गई कि रेलवे क्रॉसिंग पर नष्ट होने वाला समय बचेगा और जनता फायदा होगा।
उन सज्जन की प्रतिक्रिया थी : आपको ऐसा क्यों लगा कि सरकार यह पुल जनता की सुविधा के लिए बनाती है? यह सब बकवास है। ये सब बड़ी बड़ी मशीनें देख रहे हो? ये सीमेंट और लोहा कंपनियां ये सब बेचने के लिए सरकार को रिश्वत दे कर समझाती है कि पुल और रास्ते बनाएं जाएं ताकि नेता वोट मांगे और कंपनियां पैसे कमाएं।
बुद्धिजीवी के सामने हम मूड़मती मूक हो गए।
१९९० दशक। लगभग अंतिम चरण
बाज़ार में कोका कोला और पेप्सी पूरी तरह छा गए थे। स्थानीय सभी ब्रांड या तो ख़तम हो चुके थे या ख़तम होने की कगार पर थे। उनमें से कईयों ने अपनी फैक्टरियों को कोका कोला या पेप्सी की शाखा ( बॉटलिंग प्लांट) बना लिया था। ऐसे समय में बंगाल के शहरों में घूमते हुए मैंने एक स्थानीय पेय की प्रशंसा कर दी जो बाजार में मिलना लगभग बंद सा हो गया था। मैंने कहा की स्थानीय पेय कोक और पेप्सी के विज्ञापन और बाजार नीतियों के सामने टिक नहीं पाए।
मेरा स्थानीय साथी दुःखी हो कर बोला , यह तो केंद्रीय सरकार की निश्चित सिद्धांत है कि बंगाल की किसी भी उद्योग को पनपने नहीं देना। इसलिए केंद्रीय सरकार ने अमेरिका से इन दोनों कंपनियों को बुलाया और उनको लगातार विज्ञापन के पैसे सरकार की तरफ से दिए जा रहे हैं।
मैं सिर्फ चौका ही नहीं, कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध हो गया। मैंने कहा, यह दोनों निजी कम्पनियाँ है और यह किसी भी देश में जाती है तो अपने आप को स्थापित करने के लिए १०-१५ साल नुकसान सहने को तैयार होते है और उस हिसाब से विज्ञापन पर खर्चा करते है। इसमें सरकार का कोई काम नही, यह सिर्फ व्यवसाय है।
वो सज्जन दहक उठे, तुम दिल्ली वाले हमें इतना बेवकूफ समझते हो? कोई भी ऐसी कंपनी नहीं है जो अपने पैसो से विज्ञापन करती हो इतना सारा। यह तो केंद्रीय सरकार का षड़यंत्र है हमें ख़तम करने के लिए।
उसकी बुद्धि के प्रकाश में मैं अंधकार में चला गया।
२०१४
पूर्वी भारत का एक शहर। २० साल की वो लड़की, विज्ञान में स्नातक, पहली बार उस शहर में गयी। व्यस्क रिश्तेदार के घर अपने पापा के साथ गांव और देश के दूर दराज़ जगह का उसका पहला प्रत्यक्ष साक्षात्कार था वह। तीसरे या चौथे दिन उसने कहा कि वो मैग्गी या ओट्स का नाश्ता करेगी और अकेले बाजार चली गयी। एक, दो, तीन, ... कुछ दुकानों पर पूछने के बाद उसको अपना मन चाहा सामान तो नहीं मिला लेकिन एक दुकानदार अंकल नाराज़गी में बोले, क्या पागलों जैसी चीज़ों के पीछे पड़ी हुई हो। तुम कम उम्र के लोगों को कुछ पता नहीं है क्या ? तुम्हे मालूम है इन चीज़ों को खाने से तुम जवान लड़के लड़कियां बीमार पड़ जाओगे और ३०-३५ की उम्र तक पहुँचते पहुँचते मर जाओगे। इन सब चीज़ों को खाना छोड़ दो। बुद्धि नहीं है, तो हम लोगो से ले जाओ।
लड़की उस बुद्धिजीवी के सामने चुप हो कर वापस हो गयी।
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व्यंग
१९७० का मध्य
दिल्ली में खबर आयी कि तीन पुल बनाएं जाएंगे। तीनो पुल रेल लाइन के ऊपर होंगे। एक रिश्तेदार जो उन दिनों के वाम मानसिकता में बंधे हुए थे हमारे घर आए और बात बात में बन रहे तीन पुलों की बात छिड़ गई कि रेलवे क्रॉसिंग पर नष्ट होने वाला समय बचेगा और जनता फायदा होगा।
उन सज्जन की प्रतिक्रिया थी : आपको ऐसा क्यों लगा कि सरकार यह पुल जनता की सुविधा के लिए बनाती है? यह सब बकवास है। ये सब बड़ी बड़ी मशीनें देख रहे हो? ये सीमेंट और लोहा कंपनियां ये सब बेचने के लिए सरकार को रिश्वत दे कर समझाती है कि पुल और रास्ते बनाएं जाएं ताकि नेता वोट मांगे और कंपनियां पैसे कमाएं।
बुद्धिजीवी के सामने हम मूड़मती मूक हो गए।
१९९० दशक। लगभग अंतिम चरण
बाज़ार में कोका कोला और पेप्सी पूरी तरह छा गए थे। स्थानीय सभी ब्रांड या तो ख़तम हो चुके थे या ख़तम होने की कगार पर थे। उनमें से कईयों ने अपनी फैक्टरियों को कोका कोला या पेप्सी की शाखा ( बॉटलिंग प्लांट) बना लिया था। ऐसे समय में बंगाल के शहरों में घूमते हुए मैंने एक स्थानीय पेय की प्रशंसा कर दी जो बाजार में मिलना लगभग बंद सा हो गया था। मैंने कहा की स्थानीय पेय कोक और पेप्सी के विज्ञापन और बाजार नीतियों के सामने टिक नहीं पाए।
मेरा स्थानीय साथी दुःखी हो कर बोला , यह तो केंद्रीय सरकार की निश्चित सिद्धांत है कि बंगाल की किसी भी उद्योग को पनपने नहीं देना। इसलिए केंद्रीय सरकार ने अमेरिका से इन दोनों कंपनियों को बुलाया और उनको लगातार विज्ञापन के पैसे सरकार की तरफ से दिए जा रहे हैं।
मैं सिर्फ चौका ही नहीं, कुछ क्षणों के लिए स्तब्ध हो गया। मैंने कहा, यह दोनों निजी कम्पनियाँ है और यह किसी भी देश में जाती है तो अपने आप को स्थापित करने के लिए १०-१५ साल नुकसान सहने को तैयार होते है और उस हिसाब से विज्ञापन पर खर्चा करते है। इसमें सरकार का कोई काम नही, यह सिर्फ व्यवसाय है।
वो सज्जन दहक उठे, तुम दिल्ली वाले हमें इतना बेवकूफ समझते हो? कोई भी ऐसी कंपनी नहीं है जो अपने पैसो से विज्ञापन करती हो इतना सारा। यह तो केंद्रीय सरकार का षड़यंत्र है हमें ख़तम करने के लिए।
उसकी बुद्धि के प्रकाश में मैं अंधकार में चला गया।
२०१४
पूर्वी भारत का एक शहर। २० साल की वो लड़की, विज्ञान में स्नातक, पहली बार उस शहर में गयी। व्यस्क रिश्तेदार के घर अपने पापा के साथ गांव और देश के दूर दराज़ जगह का उसका पहला प्रत्यक्ष साक्षात्कार था वह। तीसरे या चौथे दिन उसने कहा कि वो मैग्गी या ओट्स का नाश्ता करेगी और अकेले बाजार चली गयी। एक, दो, तीन, ... कुछ दुकानों पर पूछने के बाद उसको अपना मन चाहा सामान तो नहीं मिला लेकिन एक दुकानदार अंकल नाराज़गी में बोले, क्या पागलों जैसी चीज़ों के पीछे पड़ी हुई हो। तुम कम उम्र के लोगों को कुछ पता नहीं है क्या ? तुम्हे मालूम है इन चीज़ों को खाने से तुम जवान लड़के लड़कियां बीमार पड़ जाओगे और ३०-३५ की उम्र तक पहुँचते पहुँचते मर जाओगे। इन सब चीज़ों को खाना छोड़ दो। बुद्धि नहीं है, तो हम लोगो से ले जाओ।
लड़की उस बुद्धिजीवी के सामने चुप हो कर वापस हो गयी।
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