एक लहर का इंतजार

 


एक दिन और गया,
एक रात और गई।
मैं वैसा ही खड़ा रहा,
इंतज़ार, उस एक लहर का।
सागर मेरे इतना पास,
फिर भी वो मुझसे दूर।

दर्द की टीस चुभती रही
दुर्गंध शैवाल की उठती रही।
मैं एकांत रातों में,
अनंत अमावस साथियों से,
कभी चीखता, हंसता, रोता,
बतियाता खुद से, अपने ही अमावस से।

लहरें मुझ तक आती,
नर्म, गर्म, ठंडी, रेत ले जाती।

फिर भी मैं टिका हुआ,
फिसलती रेत, खोखली होती जड़ें।
लाखों ज्वार आते, वापस जाते,
सागर के पानी से मुझको नहलाते।

रचते देखे कितने इतिहास,
दिल में संजोए कितनी व्यथाएं,
कुछ आंसू, हास, परिहास
असंख्य आशाएं, चंद पूर्णताएं।

इंतजार इन सबके बीच
उस एक लहर का
सागर के भेजे उस दूत का।
बाहें फैलाए जो मुझे लेने आता
आगोश में उसकी मैं समाता
मेरे सागर के सीने में
मेरा अस्तित्व खो जाता।
मैं अपने सागर में समाता
सागर मुझे लील जाता।

समुद्र की लहर, अब आ जाओ,
होने वाली है सहर।
होने वाली है सहर।

मन खुशी से नाचता
हर ज्वार शायद लाती वो लहर
जो लेगी मुझको आगोश में।
हर भाटे के बाद पाता खुद को
फिर अकेला, थोड़ा और खोखला।


अनुप मुखर्जी "सागर"


1 comment:

  1. Choice of words is appealing for framing the poem. Keep it up..

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