आकांक्षित नींद

 आकांक्षित नींद

नींद खो गई 
इस क्लांत अँधेरी  राहों में। 
ग़म था कुछ इतिहास का, 
हमने खुद को इतिहास से निकल लिया। 

जाम लगाया था शराब का, 
हमने डूब कर देख लिया। 
निंदिया को हम ढूंढ़ते रहे खुली आँखों से। 
मृग और मृगतृष्णा का खेल चलता रहा। 
हम ख्वाब देखते रहे खुली आँखों के झरोखों से। 
नींद जाती रही दूर आंखे बंद होने के इंतज़ार में।  

वादा  किया था आने का,
भरोसा था आएगी ज़रूर। 
कुछ देर सही, 
 पर मिलेगी ज़रूर। 
एक वो शाम, जो ज़िन्दगी की शाम, 
पलकों को बंद करेगी, वो नींद आएगी। 
और सारी  क्लान्ति सारी वेदना 
सारी  विडम्बना, सब खो जायगी। 

उस चिरआकांक्षित नींद की गोद  में।
परमात्मा की शरण में। 

1 comment:

  1. অচ্ছি কবিতা লিখতে হো মেরে দোস্ত।
    কলম চলতা রহে য়ৌঁহি, থমে না।
    সোচ খতম না হো, চিঙ্গারিয়ো সে দীপ জলাতে রহো;
    ক‍্যা পতা, কোই ভটকে কো রাহ দিখ যায়ে!

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