जी, मेरी पहली विदेश यात्रा की याद आ गई। असल में उसको विदेश यात्रा कहना पूर्ण रूप से सही तो नही होगा लेकिन वो पहला कदम जो मैने भारत के बाहर किसी देश में रखा था।
मेरा पहला कदम दूसरे देश की धरती पर चुपके से था। न कोई पासपोर्ट, न कोई अंतरराष्ट्रीय जांच पड़ताल, सिर्फ उस ज़मीन पर उतरे, खजूर का ताजा रस पिया, साथियों में से किसी ने कच्चे नारियल का पानी पिया, विक्रेता से दो चार बातें करें अपनी मातृ भाषा में, और वापस हो लिए। यह समझ सबको थी कि भैया यह सफर तो यात्रियों के बीच का रहस्य ही रहेगा और अगर किसी को बताना हो तो अच्छा है न ही बताओ। हां, सालों बाद बताओ तो कोई अंतर नही। मोबाइल था नहीं की तुरंत स्टेटस भेजते।
जी, बात है असम बंगाल की सीमा पर स्थित धूबरी शहर की। 1980 के दशक की बात है, हम शहर में किसी काम से गए। दिल्ली से ब्रह्मपुत्र मेल में न्यू अलीपुरद्वार और वहां से बस। छोटा, प्यारा, सा शहर। बंगाली और असमिया लोगो का मिश्रण। हम जहां थे वहां बंगाली ज्यादा थे। खुल के सब से अपनी भाषा में बातें करने का आनंद ही कुछ स्वर्गीय सा अनुभव देता है, उसका मजा लेते एक दो दिन बीत गए।
तीसरे दिन ब्रह्मपुत्र नदी पर नौका विहार को निकले। सौभाग्य से हम करीब 8 पुरुष ही थे, 2 माझी। ब्रह्मपुत्र की चौड़ाई बहुत है, हमे लगा की यह तो सागर है, किनारा जैसे की नजर न आए। तब हम में से जो बड़े थे, उन्होंने समझाया की साधारण तौर पर हिंदी बंगाली में नदियों को स्त्रीलिंग कहा जाता है। जबकि सिर्फ दो अपवाद, ब्रह्मपुत्र और दामोदर जो पुल्लिंग माने जाते है और उनको नदी नही, नद कहा जाता है। भूपेन हजारिका का गाना भी याद आया जिसमे ब्रह्मपुत्र के पितृत्व का जिक्र आया है।
खैर, माझी ने प्रस्ताव रखा और हम सभी ने लपक लिया, करीब एक किलोमीटर बहने पर दूसरे तट पर बांग्लादेश है, और हम सभी राजी हो गए इस तट पर जाने को। कोई महिला न थी इसलिए विरोध भी नहीं हुआ।
और पहली बार हमने बांग्लादेश की जमीन पर पैर रखा। एक सज्जन छोटा मोटा समान बेच रहे थे, उनसे कुछ बातें की। खजूर का रस और नारियल पानी पिया गया। रकम हमने भारतीय मुद्रा में ही चुकाई। माझी और उस दुकानदार की बातों से पता चला की दोनो किनारों के लोगो में आपसी व्यापार होता रहता है, किसी को कोई समस्या नहीं आती। यह जरूर की जो भी व्यापार होता वो तट पर ही होता और कोई भी दूसरे देश के अंदर नहीं जाता। एक ने चुटकी ली, ब्रह्मपुत्र का पानी, बहती हवा और उड़ते पंछी को पासपोर्ट नहीं चाहिए, उनको कोई मुश्किल नहीं। सिर्फ इंसानों के लिए यह सीमाएं है।
बात दिल को लगी, और कई साल बाद एक गाने में भी सुनाई दी। वैसे भी दोनो तरफ के लोग एक जैसे, लेकिन देश अलग, यह समझ आई उस पहली विदेश यात्रा से।
अनूप मुखर्जी "सागर"
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