मरिचिका
सम्पद की तृषणा, शाश्वत मरिचिका,
अनन्त दौड़, असीम तलाश,
सम्पद सदा पाया असम्पूर्ण,
मानव सदा रहा हताश, क्षुब्ध।
चक्रव्यूह में दिशाहीन सब,
अभिमन्यु बन अड़े युद्ध में,
करते खुद को आहत क्लांत,
निकास द्वार ढूंढते अविराम।
प्यासे रहते, मिटती नहीं प्यास
विचरते शुष्क मरुस्थल में सब,
दृष्टिभ्रमित हो दौड़ते उद्यान को,
जानते लेकिन, मारीच का है शव।
थोड़ा रुको दोस्त, समय नहीं?
समय तो किसी का नही, दोस्त,
दृष्टिभ्रम के मरीचिका के दौर में,
साथ रुको, स्नेह के भंडार के।
मरीचिका ने दौड़ाया बहुत,
एकबार सांस ले कर देखो ,
नजर दूर नहीं, पास डालो,
निर्मल स्नेह? मन में तलाशो।
बहुत दौड़ चुके तुम इस दौर में,
प्राप्ति के अधिकार की होड़ में,
मरुद्यान की विफल वृथा आस में,
मिलेगा प्राप्य जो, अपने ही
मन के, भंडार में।
अपने ही मन के भंडार में।
अनूप मुखर्जी "सागर"
Very deep meaning and very well written.
ReplyDeleteThoughts coming from depth of heart, keep going gentleman
ReplyDeleteKhùb sundar jadìo 40% bujte perechi. God bless.
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