आईना

 


आईना, तुम मेरे हो?
आईना, तुम सबके हो।
आईना, क्या तुम सबके हो?

तुम मेरे हो,
जब मैं निहारती तुमको,
तुम भी प्यार से
देखते मुझको,
खुद को मैं देखती
तुम में, मैं बनती आईना
तुम्हारा, तुम देखते मुझको।

आईना, तुम्हारे कितने नाम,
कोई पुकारता मुकुर, कोई
कहता दर्पण, आरसी,
देख कर तुममें खुद को
विरह व्यथित प्रेयसी,
रह जाती खोई, खोई।

तुम में मैं खुद को पाती,
करती मैं तुमसे बाती,
खुश होती तुम मेरे साथ,
दुख मैं बांटती तुम्हारे साथ।
मुस्कुराती आइना तुम,
सहलाती मुझे, मेरी सहेली,
मैं तुम्हारी, तुम मेरी
नही कोई पहेली।

सहेज कर रखती तुमको,
संभालती, बचाती सबसे।
तुम इतने नाजुक क्यों,
खनक जाती कंकड़ से?
बिखर भी गई अगर तुम
मैं तो रहूंगी हर टुकड़े में,
समेट क्यों नहीं लेते
मेरे बिखरते टुकड़ों को
तुम अपने अंतर्मन में।

देख कर तुममें खुद को वो
बढ़ाते अक्सर अहंकार।
आईना हिम्मत से कोई अगर,
अहंकारी को जब दिखाता
नाराज़, सिर्फ नही, हिंसक
रूप वो तब जरूर दिखाता।

तुम अपना सिर्फ धर्म निभाती,
सबको उनका आइना दिखाती।
पूछता जब कोई तुमसे
कौन सबसे खूबसूरत?
कौन सबसे ताकतवर?
तुम चुपके से झांकती,
उनके हृदय को खंगालती,
जांचती, परखती उनका मन,
सच्चाई बयान करती तुममें,
प्रतिबिंब उनका, गुस्साए?
या मुस्कुराए;
तुम तो रहती अपने खुद में,
आईना, मेरा सब कुछ,
मेरा आईना।

अनूप मुखर्जी "सागर"


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Know Thyself. Only You know yourself through you internal Potency