पन्नों की याद
जब उँगलियों से पन्नों पर
लफ्ज उभरते थे।
जब लफ्जों में प्यार,
उलफत, नेह झलकते थे।
तब पन्नों को पड़ने वाले भी
उनको छूकर सोचते,
लिखने वाले की उंगलिया छूते।
तब ख़त भी सँजोये जाते
यूं दिल के पास।
जैसे कि ख़त कागज़ नहीं,
हों कुछ और, कुछ खास।
अब मोबाइल पर उंगलिया
सिर्फ खेलती है,
संदेशों कि भीड़ में
लफ्ज भी खो जाते कहीं।
तब ख़त होते, किसी के
होने का अहसास।
न होते हुये भी मानो,
लाते किसी की सुगंध,
किसी की दुआ, कोई सोच।
किताब कापी में वो छुपा गुलाब,
आज भी उन दिनो की याद दिलाती,
जब दिल दिमाग मे भरा था
आशाओं का आकाश।
तरसती आँखें, तड़पता दिल
वापस मिलने लेने को,
वो सब, लड़कपन के दिन।
अब भी बंद आँखों से दिखता,
वो चमकती नज़रें, दमकते चेहरे।
कहाँ खो गए वो पन्ने, वो फूल,
वो कहकहे, वो बातें,
नहीं सकते जिनको भूल।
किंडल, मोबाइल, काफी कुछ है,
लफ्ज भी, कहानियाँ भी,
प्यार भी, उलफत भी,
है तो अभी भी यह सब।
लेकिन फिर भी कहीं खाली है,
लफ्जों की गहराई, स्नेह का जोड़,
नहीं जगह कहीं भी, नहीं कोई पन्ना,
गुलाब का फूल, गुलदस्ते में,
अब जाता वहीं पर सूख।
न रही वो किताब,
कहीं नहीं वो प्यार भरी सोच।
बिछड़े पन्नो की याद ही कभी,
ले जाती, पुराने दिनों में हमें,
और दिल मसोस कर,
हम भी कोशिश करते,
बहलाने को, इस दिल को।
Nice one
ReplyDeletebeautiful
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