उदास नही, सिर्फ चुप

 उदास नहीं, सिर्फ चुप 


पापा, तुम अंधेरे में क्यों खड़े हो?
दिन भर की यात्रा से थके, अवसन्न,
सभी सो गए, नींद की गोद में खो गए,
मुझे नहीं बताओगे, क्यों हो अप्रसन्न?

नही मेरी बेटी, कोई अवसाद नही, ना ही
अवसन्न, न कोई थकान, न ही उदासिन हूँ,
शांत गगन, शुभ्र चाँदनी, चमकते सितारे,
सब कुछ निशब्द, सबके साथ, सिर्फ चुप हूँ।

सब जब सो गए, विश्राम शैय्या पर पसर गए,
तब तुम ही क्यों पापा को ढूँढती, बाहर निकली।
सोचने को वैसे मेरे पास सुबह थी, दोपहर भी,
मेरे ख्यालों का साथ देने, रात खुद चल निकली।

पर पापा, क्लांत तुम, लग रहे हो उदास भी, 
थाम लो हाथ मेरा, चलो अन्दर, मेरे साथ ही,
कितनी कहानियां, कितना ज्ञान दिया तुमने, 
चलो अब मेरे साथ, सुनाऊँगी कहानी मैं भी।

हां बेटी, माँ स्वरुपा, कहानियां सुनाओ मुझे,
शायद कुछ जो कभी मैने लिखी, कही भी,
पढ़ी, सुनाई  और खुद ही सुनी, आज तुम ही
सुनाओ, कुछ आपबीती, कुछ मेरी, सुनाओ मुझे।

या फिर आओ, दिन का शोर तो बहरा बनाए,
हवा की सरसराहट, पत्तियों की गुफ़्तगू सुने,
रात की ख़ामोश आहट, घटाओं का संगीत,
उदास नहीं, निशब्द, आपस की खामोशी सुने।

फिर हाथ में हाथ धरे,
रिश्तों का सम्मान बड़े,
शब्द बड़े कठिन भए रे,
खामोश सभी संवाद भले।

उदास नहीं, निशब्द बैठे,
दिल की अब आवाज सुने।
दिल की अब आवाज सुने।।


अनुप मुखर्जी "सागर"

4 comments:

  1. एक बेटी ही भांप लेती है मां और पापा के चुप्पी को। अति सुंदर

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    1. यंहा बेटी एक प्रतिक है एक साथी का। और यह मेरी बेटियों को समर्पित है

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