असहिष्णु कहते है वो हमें, क्यों
हमारे तर्क उनको हजम नही होते।
खामोशी हमारी उनको पसंद
मान लेते इसको वो उनकी गुलामी।
गर कहीं हम बोल उठे,
होंठ हमारे अगर खोल दिए
इल्जाम लगाते है वो हम पर
कि हम में बुर्जुआ और नाज़ी बसे।
हम तो केवल आईना दिखाते उनको
चेहरा वो देख आईना भी तोड़ देते।
हम तो चले जा रहे थे किनारे किनारे
न तूफान का डर, शिकवा भी किससे।
शमशीर चमकाते झलकाते वो हमेशा मिले
फकीरों से भी डरते, झोले में छुरी न मिले।
होठों पर हम जपते नाम हरी का,
या खुदा का, या फिर उस अनाम का।
उनके लाठियां गोलियां बरसती रही,
जीत कर भी वो, गले में हार लेकर चलते रहे।
अनूप मुखर्जी "सागर"
Very nice
ReplyDeleteअसहिष्णुता, जीत कर भी वो गले में हार लेकर चलते रहे, क्या बात है। सम्मोहित कर दिया।
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