बिना सुगंध के फूल

 

फूलों की खुशबू पर सैकड़ों हजारों लेखकों ने कहानियां और कविताएं लिख डाली। आश्चर्य करता हूं की क्या किसी की नजर बिन खुशबू के फूलों पर नहीं गई? या फिर ऐसे फूल बाजार में तो होते हैं लेकिन उनकी उपस्थिति लेखन में नहीं, शायद लेखनी के बाजार में ऐसे फूलों की कीमत नही?

चलिए बाजार में देखे पहले।

उन दिनों की बात है जब फूलों का गुलदस्ता देने का रिवाज था तो सही लेकिन मुझे ना मिला था और न ही मैने किसी को दिया था। ऐसी अवस्था में ऑफिस के काम से अपने शहर कलकत्ता से दिल्ली गया। हवाई अड्डे पर लोग लेने आए। गोया के मुझे दिल्ली में किसी दफ्तर में गहन निरीक्षण करना था चुनांचे स्वागत भी गहन था। गेट से निकलते ही लोग मिले मेरे नाम का पोस्ट लिए। अपना परिचय देते ही एक फूलों हार मेरे गले में डाल दिया गया और हाथ में फूलों का गुच्छा। परिचय का तकल्लुफ निबटा कर होटल पहुंचे। चूंकि शाम ढल चुकी थी तो कमरे में समान टिका कर वो लोग नीचे दस्तरखान पर हमारा इंतजार करेंगे इस प्रकार का संदेश देकर चले गए। अपने राम भी हाथ मुंह धोकर पहुंच गए उनके पास।

खाने की समाप्ति पर वो लोग अगले दिन मिलने की चेतावनी देकर चले गए और हम भी अपने कमरे को चल दिए।

कमरे में फूलों का गुच्छा गुलदस्ते में सजा हुआ था। करीब से उन फूलों को अनुभव करने की कोशिश करी तो इंद्रियां भ्रमित हो गई। आंखे देख रही थी गुलाब और रजनी गंधा के फूल लेकिन खुशबू आ रही थी चमेली की। खैर, खुद को समझाया कि यह फूल दिखाने के और, सूंघने के और होंगे। बात खतम हो गई। कुछ ऐसी तो न थी कि अपने यजमानों से जानकारी मांगते। इतना तो आत्मविश्वास था कि जो वो जीभ से निष्कासित कर रहे थे और जो उनके कंठ में छुपा हुआ था वो भी अलग अलग थे ।

कुछ वर्ष बाद फूलों की फैक्ट्री में जाने का मौका मिला तो पता चला कि वाकई में फूलों की सुगंध तो चोरी हो गई। देखो कुछ, शांत हो जाओ। सूंघना हो तो कमरा ताजगी वाला स्प्रे मार दो। बात खतम।

ठीक वैसे ही की शकल देख कर व्याह कर दिया, दामाद लाए या बहू, अकल का पता तो बाद में ही चलेगा। अब क्या पता कि ऊपर की मंजिल में अकाल पड़ा है या फसल अच्छी है।


जय राम जी की।



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