निर्वाण वर दो
संयुक्त प्रयास
स्वप्ना और अनूप द्वारा
स्मित हास्य मुख पर लेकर
शेषनाग पर शायित तुम ।
तुम तो मुक्त मोहमाया से
शांति, धर्म, विजय स्वरूप।।
शांति, धर्म, विजय स्वरूप।।
पर देखो
अपमानित रचना तुम्हारी
निर्वस्त्र, निराहार, शोषित।
शांत कैसे हो रचयिता तुम
जब फंसी भंवर में सृष्टि।
जाति, धर्म, रंग बने विष
सुमेरु पर्वत मानो मथे सृष्टि।
वासुकी फिर फैलाए विष
नहीं फिर अब नीलकंठ, हे इश।
तुम ही तर्क, तुम ही तारक,
अब तुम ही पालनहार हो।
सत्य, संत, सुजन संरक्षक
दुष्ट, दुर्जन संहारक तुम।
शिशुपाल से व्यथित सब
भीष्म सम शापित सब
उठाओ सुदर्शन चक्र तुम।
मुक्त करो पाप से जगत को
प्रकृति, मानव करे त्राहिमाम
रिक्त करो पापियों से इसको।
हम सब हैं दास विधाता
दो मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण सबको।
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