नदी, तुम दूषित? नहीं।

नदी, तुम दूषित? नहीं।  


नदी, क्या तुम दूषित हो ?
नहीं, तुम हो पवित्र
जब तुम उतरी थी स्वर्ग से
पहुंची  थी हिमालय पर्वत
थी तुम पवित्र तब भी
बसी  थी जब तुम शिव की जटाओं में।
बड़ी थी पवित्रता उस बंधन में
और चली थी तुम धरती के प्रांगण में।
 घाटी पहाड़ों से होकर
उतर आई थी तुम धरती पर
 तुम थी पवित्र तब भी
जब तुमने किया आलिंगन
सागर के उन्मुक्त वक्ष का।
आश्रित हुए जो तुम्हारे किनारे
दूषित किया उन्होंने ही तुम्हे।
जीविका जिनको दी तुमने अपनी ही धारा में
कलुषित किया उन्होंने तुम्हारी धारा ही खंडित कर के।
तुम हुए उनके उपार्जन का साधन
और नाम हुआ कलुषित, कि तुम !

तुम आज भी वही पवित्र
न रहो अब उस कृत्रिम बंधन में ।
उतरो फिर एक बार
जटाओं से महादेव की
आलिंगन को आज भी आतुर
आओ उस उन्मुक्त वक्ष पर
विसर्जित करो आज उन सभी को अपने में
कलुषित किया तुम्हारे परिचय को जिन्होंने ।
बहा दो आज सब को सागर के जल में
तुम थी पवित्र, रहो पवित्र
इस धरती के आंगन में

मानव कहता तुम दूषित,
कलुषित वो अपने आचरण में।

No comments:

Post a Comment

Know Thyself. Only You know yourself through you internal Potency