दांतो को जाने से रोकने के लिए भरसक कोशिश करते एक लेखक की दास्तान
कब तक कष्ट सहे
कब तक जुल्म सहे।
कब तक ताकते रहे
हम तुम्हें, ओ प्यार मेरे।
याद है वो सुबह शाम चने चबाना
तुम्हारे भरोसे भुने भुट्टे खरीदना।
बेझिझक तंदूरी मुर्गा और कबाब
तुम्हे विश्राम देने, साथ में शराब।
याद है वो गन्ने को छीलना,
और फिर उनको चूसना।
छीलने और चबाने की मेहनत
मीठा रस ही करता वसूल कीमत ।
वो बचपन में बना जो साथ,
वादा था जिंदगी बिताने का।
अब तुम जाने को तैयार प्रिय
कष्ट तुम्हारा असहनीय, प्रिय।
सोचते हो, जाओगे अब!
देखो कहते है क्यों सब?
कमज़ोर जड़ें जो तुम्हारी हैं
रिश्ते तो हमारे मजबूत हैं।
जाने ना देंगे तुम्हे ऐसे
बेवफा गर जड़ें हुई तो
खोद डालेंगे उनको जैसे
जड़ें तुम्हारी बना दे तो।
सोच में डूबो न ज्यादा
उसका न होगा फायदा
Root canal करवा लेंगे
जाने हम तुमको न देंगे।
टोपी पहनाएंगे, साफ रखेंगे,
साथ हमारा न छोड़ने देंगे।
दर्द हमने भी तुमको दिए
कसम है फिर भी, बगैर
तुम्हारे, हम न जिए।
अब फैसला हो ही गया
काम पूरा हो ही गया।
टोपी और जड़ें तुम्हारी लेकर
अंत तक चलेंगे तुमको लेकर।
साथ रहेगा तब भी प्रिय,
चार कंधों पर उठेंगे जब हम
गंगा जल की बूंदे लेकर चले
सीएनजी के चूल्हे में हम।
जो है उसका ध्यान रखना
सिखाया तुमने मुझको हमेशा
दांत ही हो केवल कहते लोग,
व्यवहार जिंदगी का, भूलते क्यों लोग।
अनूप मुखर्जी "सागर"
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