मैं और मेरी परछाई

 


मैं और मेरी परछाई, चलते सदा साथ,
गुफ्तगू कर लेते हमेशा, पकड़ लेते हाथ।
कभी छोटी सी, कभी बहुत लम्बी, बड़ी,
कभी सिमट जाती, चलती सदा मेरे साथ।

यह जो मेरी परछाई, जो मेरे साथ रहती,
मैं पकड़ने उसको भागता, वो भागती तेजी से,
मैं बैठ जाता, मनमरा, उदास, धीरे से।
परछाई सहलाती मुझे, प्यार से, करीब से,
खेलती, मेरी गोद में आती, मैं भींच लेेता, जोर से।

जितनी तेज धूप, उतनी स्पष्ट मेरी परछाई,
हो रखी जैसे मेरे से, उसकी कुड़माई।
या फिर जन्म से रिश्ता हमारा,
बंधा उसके लिए, मेरा सेहरा।

जलता हूं परछाई अपनी ही,
स्पष्टवक्ता कभी हो न पाया
डरता रहा कोई नाराज न हो
खुश हूं, कड़ी धूप में ही सही
परछाई तो स्पष्ट बनती रही।

खुश हुआ मैं उसको देख कर
मेरी परछाई मुझसे लंबी, मुझसे बड़ी
कुछ है मुझमें, खुद बेशक न हुआ
परछाई तो मेरी ही, हो गई मुझसे बड़ी।

मैं सोता, वो भी सोती,
कभी भी जुदा न होती ।
मैं खुश होता, वो भी हँसती,
परछाई, दुःख में, मुझे सहलाती।

तन्हाई की बातें करते देखा सबको,
दिखी न होगी अपनी परछाई, उनको।
नजर घुमा कर अगर देखते वो, तन्हा?
नही रहते कोई, साथ सदा है परछाई।


No comments:

Post a Comment

Know Thyself. Only You know yourself through you internal Potency